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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:
द्वादश: सन्दर्भ
12. गीतम्
विहित-विशद-विस-किसलय-वलया। अनुवाद- विमल-धवल मृणाल एवं नव-पल्लव विरचित वलय-समूह को पहने वह केवल आपके साथ रमण करने की इच्छा से जी रही हैं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- मृणाल के सूत्रों से और उसकी कोपलों से श्रीराधा ने स्वयं को वलयित कर लिया है, जिससे कामजन्य संताप से मुक्ति मिले। अतिशय क्षीण और कृशा होने पर भी आपके साथ रमण करने की इच्छा से आनन्दित होकर उन्होंने अभी तक प्राणों को धारण कर रखा है। तुम्हारे प्रेम की विधि अभी भी उनके प्राणों में बसी है। तुम्हारे प्रेम का एक पूरा तन्त्र प्राण की तन्त्री में बज रहा है। रमण का आवेश ही उनके प्राण धारण का कारण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- कथं तर्हि जीवतीत्याह विहित-विशदविस-किशलय-वलया (विहितं कृतं विशदविसानां शुभ्रमृणालानां किसलयानाञ्च वलयं यया तादृशी) सती परं (केवलं) तव रतिकलया (रमणावेशेन) इह जीवति ॥3॥
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