गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 244

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:

एकादश: सन्दर्भ

11. गीतम्

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बालबोधिनी- श्रीराधा और श्रीकृष्ण के विरह वर्णन करने के पश्चात् कवि दोनों के मिलन के संभोग पक्षीय श्रृंगार-रस का चित्रण करते हुए पाठकों तथा श्रोताओं को आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहते हैं कि-

मुग्धमुखारविन्दमधुप- श्रीराधा का मुख कमलवत् है। जिस प्रकार भ्रमर कमल का सेवन करते हुए उसके पराग मधु का पान करता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण श्रीराधा के मुख-कमल-माधुर्य का आस्वादन करते हैं। इसलिए वे 'मुग्धमधुप' पद से संबोधित हुए हैं। प्रस्तुत श्लोकांश से संयोग व्यक्त हुआ है।

त्रैलोक्यमौलिस्थलीनेपथ्योचितनीलरत्न:- त्रिभुवन में किरीट स्थानीय अर्थात् सर्वोत्कृष्ट स्थानों को विभूषित करने वाले वे नील-रत्न हैं। नेपथ्योचित का अर्थ है 'भूषणोचित'।

अवनीभारावन्तारान्तक- शिशुपाल, दन्तवक्र तथा कंस आदि पृथ्वी का भार बढ़ाने के लिए उत्पन्न हुए थे, इन्हीं 'राक्षसों' का विनाश करने के लिए श्रीकृष्ण अवतीर्ण हुए थे। अन्तक का अर्थ है 'यम'। श्रीकृष्ण अवनीभारावन्तारों के लिए यम के समान है।

स्वच्छन्दं व्रजसुन्दरीजनमनस्तोषप्रदोषोदय:- श्रीकृष्ण व्रजसुन्दरियों के मनों को तोषप्रदानकारी सायंकालवत् हैं। सायंकाल होने पर जैसे द्विजराज चन्द्रमा उदित होता है तथा कामिनियों को अपने प्रेमियों से मिलने का अवसर करता है, वैसे ही श्रीकृष्ण व्रजसुन्दरियों के हृदयों को स्वच्छन्दतापूर्वक आनन्द प्रदान कर उनकी अभिलाषा पूर्ण करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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