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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्
त्वद्वाम्येन समं समग्रमधुना तिग्मांशुरस्तं गतो अनुवाद- हे मुग्धे! तुम्हारी वामता (प्रतिकूलता) के साथ-साथ यह दिवाकर भी सम्पूर्ण रूप से अस्त हो गया। श्रीकृष्ण के मनोरथ के साथ ही अन्धकार सान्द्रता (घनत्व) को प्राप्त हो गया। विरह-विकल चक्रवाक पक्षी के रात्रिकाल में करुण स्वर निरन्तर विलाप के समान मेरी अभ्यर्थना भी व्यर्थ हो गयी। मैं अति दीर्घकाल से करुण प्रार्थना कर रही हूँ। अब विलम्ब करना व्यर्थ है। अभिसार की रमणीय बेला उपस्थित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [अत: सम्प्रत्येव गमनं साम्प्रतमिति समयानुकूल्य-माहज अधुना त्वद्वाम्येन (तव प्रतिकूलतया अभिमान-वशात् मौनभावेन इति भाव:) समं (सह) तिग्मांशु: (सूर्य:) समग्रं (सम्पूर्णं यथा तथा) अस्तं गत: गोविन्दस्य मनोरथेन च समं तम: (तिमिरं) सान्द्रतां (निविड़तां) प्राप्तम् [त्वयि गोविन्दस्य अनुराग: यथा क्रमश: गाढ़तां गत: तद्वदन्धकारोऽपि क्रमश: निविड़: सञ्जात इत्यर्थ:) मदभ्यर्थना (मम अभ्यर्थना अनुरोधश्च) कोकानां (चन्द्रकाराणां) करुणस्वरेन (कातरविलापेन) [रात्रौ तेषां विच्छेदादिति भाव:]; तत् (तस्मात्) अयि मुग्धे, विलम्बनं विफलम् [यत:] असौ अभिसारक्षण: (कान्ताभिगमन-काल:) रम्य: (प्रीतिप्रद:) प्रियतम: उत्कण्ठित: रम्यश्च अभिसारक्षण:, चिरमभ्यर्थनपरा सखी, तथापि वेशादिव्याजेन गमनविलम्बनमिति मौग्धम् ॥2॥
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