गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 230

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
एकादश: सन्दर्भ
11. गीतम्

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उरसि मुरारेरुपहित-हारे घन इव तरल-बलाके।
तड़िदिव पीते! रति-विपरीते राजसि सुकृत-विपाके
धीर समीरे यमुना तीरे... ॥5॥[1]

अनुवाद- हे विद्युत के समान पीतवर्णमयी राधे! अपने कृतपुण्य के परिणामस्वरूप विपरीत रति में श्रीकृष्ण के मणिमय हार से सुशोभित वक्ष:स्थल के ऊपर ऐसे सुशोभित होओगी, जैसे मेघ के ऊपर चंचल बक-पंक्ति प्रकाशित हो रही है।

पद्यानुवाद
रति-विपरीते, पीते! राजित घन पर बिज्जु शलाका।
हरि-उर-उपहित मौक्तिक माला, होगी तरल बलाका॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अयि पीते (गौरांगि) सुकृतविपाके (सुकृतानां पुण्यानां विपाके फलस्वरूपे) रति विपरीते (विपरीतरतौ) उपहितहारे (आन्दालित-हारे) मुरारे: (कृष्णस्य) उरसि (वक्षसि) तरल-वलाके तरला चञ्चला वलाका वकपंक्ति: यस्मिन् तादृशे) घने (मेघे) तड़ित् (सौदामिनी) इव राजसि (वर्तमान-सामीप्ये लट् शोभिष्यसे) [अत्र उरसो घनेन, हारस्य वलाकया, गौर्यास्तड़िता सह साम्यमवगन्तव्यम्] ॥5॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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