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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
अथ दशम: सन्दर्भ
10. गीतम्
भणति कवि-जयदेव इति विरह-विलसितेन। अनुवाद- श्रीजयदेव कवि द्वारा वर्णित श्रीकृष्ण की विरह-व्यथा से पूर्ण इस गान से जो सुकृति सञ्चित होती है, उस सुकृति के फलस्वरूप जिन पाठकों का मन विरह के विलास में निरतिशय रूप से निमग्न हो गया है, उनके हृदय में श्रीकृष्ण सम्यक् रूप से उदित हों। पद्यानुवाद बालबोधिनी- कवि जयदेव कह रहे हैं कि उनके इस 'गरुड़पदंनाम' के दशम प्रबन्ध के पाठकों एवं श्रोताओं को बहुत-सी सुकृति प्राप्त होगी, उन सुकृतियों का मन श्रीहरि के विरहविलास जन्य उत्साह से सम्पन्न होगा। रसोत्कण्ठित उन हृदयों में श्रीभगवान का आविर्भाव हो। इस प्रबन्ध को केदार राग में गाया जाता है। श्रीराधा ने जैसे ही निज प्राणकोटि निर्मञ्छनीय-चरण प्राणनाथ श्रीकृष्ण के विरह-विलाप का श्रवण किया, वैसे ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ी, तब सखी ने बोलना बन्द कर दिया, आगे कुछ कह ही न सकी। इसीलिए यह गीति मात्र पाँच पदों में ही वर्णित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- कवि जयदेवे इति (एवं) भणति (गदति सति) विरहविलसितेन (विच्छेदविलासेन हेतुना) सुकृतेन (पुण्येन हरि: रभसविभवे (रभसस्य प्रेमोत्साहस्य विभवो यत्र तस्मिन्) [गायतां शृण्वताञ्च भक्तानां] मनसि (चित्ते) उदयतु [हरिविरहविलसितेन हेतुना यदुत्पन्न सुकृतं तेन गायतां शृण्वताञ्च मनसि हरिरुदितो भवतु इति भाव:] ॥5॥
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