गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 22

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

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'नन्दनिदेशत:'- नन्द अर्थात जो सबके आनन्द का विधान करते हैं। नन्दश्चासौ निर्देश श्चेति इस प्रकार से यह नन्द महाराज का निर्देश भी कहा जा सकता है। इस पद से यह भी इङ्गित होता है कि जो सदासर्वदा आनन्द में डूबे हुए हैं, उन नन्दनन्दन का निर्देश पाकर। यद्यपि 'नन्दनिदेशत:' पद के बहुत प्रकार के अर्थ बतलाये गये हैं, फिर भी उक्त पद का अभिप्राय "परम प्रेयसी श्रीराधा अपनी सखी के वचनों को सुनकर" ही समुचित लगता है, क्योंकि महाराज नन्द का श्रीमती राधा को श्रीकृष्ण के साथ कुञ्ज में विहार करने के लिए आदेश देना कुछ अटपटा-सा रसाभास-सा प्रतीत होता है। वैसे ही स्वयं श्रीकृष्ण का वैसा आदेश भी अटपटा ही प्रतीत होता है। यहाँ यही अभिप्रेत है कि सखी वचन का समादर करती हुई श्रीराधिका कृष्ण को साथ लेकर चलने लगीं। सखी वचन हे राधे! यह कृष्ण भीरु स्वभाव युक्त हैं क्योंकि पिछली रात तुम्हें छोड़कर दूसरी नायिका के साथ मिलित हुए थे, अपने इस अपराध के कारण तुमसे डरे हुए हैं, उनका भयभीत होना स्वाभाविक ही है। तुम्हारे द्वारा लगाया गया अपराध 'बहु नायिका-वल्लभ' ठीक ही है, अब तुम ही मर्म पीड़ित श्रीकृष्ण को अपने में प्राप्त कराओ।

'गृहं प्रापय'- हे राधे! श्रीकृष्ण को लेकर गृहं प्रापय अर्थात मञ्जु वृक्षों से सुशोभित केलि सदन में प्रवेश करो, क्योंकि यही तुम्हारे लिए अनुकूल है। अथवा घर में ले जाओ अर्थात् कुञ्ज गृह में प्रवेश कराकर गृहस्थ अर्थात्र अपने में मिलाकर गृहिणी मान कराओ। 'गृहं प्रापय' इस वाक्य के 'गृह' शब्द में तटस्थ लक्षणा है और 'गृह' शब्द गृह में रहने वाली गृहिणी रूपी अर्थ को लक्षित करता है तथा प्र-पूर्वक 'आप' धातु उदयार्थक है। 'एव' कारके द्वारा इनकी भार्या होने योग्य केवल तुम ही हो।

यदि कोई कहे कि उनकी भार्या तो रुक्मिणी हैं क्योंकि कुण्डिन नगर वासी जनों ने रुक्मिणी को आशीर्वाद दिया था 'तुम श्रीकृष्ण की भार्या बनो।' इसी प्रकार हे राधे! तुम भी इनकी भार्या बनो, क्योंकि वह गृह, गृह नहीं जिसमें गृहिणी न हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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