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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
अथ दशम: सन्दर्भ
10. गीतम्
अनुवाद- यह प्रबन्ध देशीवराड़ी राग से तथा रूपक ताल से गाया जाता है। बालबोधिनी- सुकेशी नायिका जब हाथों में कंकण, कानों में देवपुष्प लगाये हुए हाथ में चँवर लिये वीजन करती हुई निज दयित के साथ विनोदन करती है, तब देशीवराड़ी राग प्रस्तुत होता है। वहति मलय-समीरे मदनमुपनिधाय, अनुवाद- सखि! राधे! राधे! देखो, मदन-रस में सिक्त करने हेतु मलयानिल प्रवाहित हो रहा है, विरही जनों के हृदय को विदीर्ण करने वाला विविध कुसुमसमूह प्रस्फुटित हो रहा है। ऐसे उस वसन्त समय में श्रीकृष्ण सकाम होकर तुम्हारे विरह से दु:खी हो रहे हैं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- सखी श्रीराधा से कह रही है- हे सखि! यह वसन्त की बेला है, इसमें विरहीजनों को मार्मिक पीड़ा पहुँचाने वाला मलय समीरण बह रहा है, काम के उद्दीपन के रूप में हृदयविदारक कुसुम-समुदाय विकसित हो रहा है। तुम्हारे विरह में कृष्ण अतिशय विषण्ण हैं, तुम चलो और उनसे मिल लो। वनमाली- तुम्हारे हाथ की बनी हुई वनमाला धारण कर किसी प्रकार से जीवन धारण कर रहे हैं। इसी अभिप्राय से श्रीकृष्ण को वनमाली कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- सखि, तव विरहे वनमाली [त्वत्र-कर-कल्पित-वनमालावलम्बनेन जीवतीति वनमालि-शब्दोपन्यास:] मदनम् उपनिधाय (उप समीपे-संस्थाप्य) मलय-समीरे बहति [सति], [तथा] कुसुमनिकरे कुसुम-समूहे) विरहि-हृदय-दलनाय (विरहिणां मर्मपीड़नाय) स्फुटति (विकसति) [सति] सीदति (अवसादं गच्छति; सन्तप्यते इत्यर्थ:) ॥1॥
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