गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 215

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
अथ दशम: सन्दर्भ
10. गीतम्

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पद्यानुवाद
मैं बैठा हूँ! यहीं और सखि!
राधासे जा कहना
कब तक निठुर! और उत्पीड़न
मुझको है यह सहना?

बालबोधिनी- चतुर्थ-सर्ग के प्रबन्धों में श्रीराधा की विषम विरह-वेदना का वर्णन हुआ है। सखी से श्रीराधा की विषम आर्त्ति सुनकर अपनी आपराधिक भावना से बड़े लज्जित और भयभीत हुए तथा अपनी नित्य-प्रेयसी श्रीराधा से मिलने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित हुए, किन्तु स्वयं वहाँ नहीं गये, सखी से अपना दु:ख व्यक्त कर अनुनय-विनय आदि के द्वारा श्रीराधा के कोप को दूर करने के लिए उसे भेजा। सखी से कहा कि तुम मेरी ओर से श्रीराधा जी से प्रार्थना करना और उसे जैसे-तैसे प्रसन्न करके यहाँ ले आना। जब तक वे नहीं आती हैं, तब तक मैं यहीं प्रतीक्षा करूँगा इसी यमुना के तट पर रहता हूँ। इस आदेश को प्राप्तकर सखी श्रीराधा से कहने लगी-

कृष्ण के मन में अपनी नित्य प्रेयसी श्रीराधा जी से मिलने की आकांक्षा उत्पन्न हुई है, अत: इस सर्ग को सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष कहा गया है।

पुण्डरीकाक्ष यह पद श्रीकृष्ण के मनोज्ञतम नेत्रों की ओर भी पाठकों का ध्यान आकृष्ट करता है। 'तस्य यथा पुण्डरीकमेवमेवाक्षिणी' उपनिषदों में श्रीकृष्ण के नेत्रों को लाल कमल के समान माना है।

प्रस्तुत श्लोक में पुष्पिताग्रा वृत्त है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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