गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 214

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

पञ्चम: सर्ग:
आकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष:
अथ दशम: सन्दर्भ

10. गीतम्

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अहमिह निवसामि याहि राधा-
मनुनय मद्वचनेन चानयेथा:।
इति मधु-रिपुणा सखी नियुक्ता
स्वयमिदमेत्य पुनर्जगाद राधाम् ॥1॥[1]


अनुवाद- राधा की सखी की बात सुनकर श्रीकृष्ण बोले मैं यहीं रहता हूँ, तुम श्रीराधा के पास जाओ और मेरे वचनों के द्वारा उनको अनुनय-विनय के साथ मनाकर यहाँ ले आओ। इस प्रकार मधुरिपु कृष्ण के द्वारा नियुक्त होकर वह सखी स्वयं श्रीराधा के पास आकर इस प्रकार से कहने लगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अथ तदार्त्तिश्रवण-व्याकुलोऽपि स्वापराधचिन्तया निरतिशय-भीत: तत्कोपशिथिलीकरणाय श्रीहरि: सखीमेव प्रेषितवानित्याह- अहम् इह (अस्मिन् निर्जन प्रदेशे) निवसामि (तिष्ठामि); त्वं याहि (गच्छ); मम वचनेन राधाम् अनुनय (सान्त्वय) [यदि त्वया तन्मानोऽपनेतुं शक्यते तर्हि] इह आनयेथाश्च [सहसा मम गमनेन मानोऽतिगाढ़ो भवेदित्यभिप्राय:] इति (इत्थं) मधुरिपुणा (कृष्णेण) नियुक्ता सखी स्वयम् एत्य (आगत्य) पुन: राधां जगाद ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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