गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 213

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्

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बालबोधिनी- 'मंगलान्तानि च शास्त्राणि प्रथन्ते' अर्थात् जिस शास्त्र के आदि, मध्य तथा अन्त में मंगल होता है, उस शास्त्र का प्रचुर प्रचार होता है। इस नियम के अनुसार कवि जयदेव ने ग्रन्थ के चतुर्थ सर्ग की समाप्ति पर आशीर्वादात्मक मंगलाचरण प्रस्तुत किया है कि श्रीकृष्ण की वे भुजाएँ पाठकों एवं श्रोताओं का मंगल विधान करें। उन भुजाओं की विशेषताएँ हैं-

वृष्टि-व्याकुल-गोकुला वनरसादुद्रधृत्य गोवर्धनं विभ्रत्र।

अर्थात क्रुद्ध होकर जब इन्द्र ने गोकुलवन को विनष्ट करने हेतु पुष्कर एवं आवर्तक मेघों से भयंकर वर्षा करना प्रारम्भ किया था, उस समय समस्त गोपमण्डली व्याकुल हो गयी थी। यह देखकर गोकुल की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण ने गोवर्धनाद्रि को उखाड़कर अपने हाथ पर उठा लिया था। तब शृंगाार-उद्दीपक वीर रस का प्रकाश उनकी भुजाओं में हुआ था।

जब श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वत धारण किये हुए थे, तब गोपियाँ अतिशय आनन्दमग्न होकर श्रीकृष्ण की भुजाओं का चुम्बन करने लगी थीं।

श्रीकृष्ण के वैदग्ध्य, माधुर्य एवं सौन्दर्य आदि का अवलोकन करके चुम्बन करने वाली इन गोपियों का ललाट-स्थित सिन्दूर और लाल-लाल ओंठों की लालिमा भी उन भुजाओं में चिह्नित हो गई थी।

इस प्रकार अपने इस सौभाग्यमद से अंकित श्रीकृष्ण की भुजाएँ सबका कल्याण करें।

स्निग्ध मधुसूदन इस प्रकार श्रीराधा की विकलता का श्रवण कर श्रीकृष्ण स्निग्मा चेष्टाशून्य हो गये।

श्रीगीतगोविन्द महाकाव्य में स्निग्ध-मधुसूदन नामक चतुर्थ सर्ग की बालबोधिनी व्याख्या समाप्त।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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