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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ नवम: सन्दर्भ
पद्यानुवाद बालबोधिनी- हे माधव! इस सन्निपात की अवस्था को प्राप्त हुई वह आपके संगम की आकांक्षा से ही जी रही हैं, ज्वर को दूर करने वाले सारे उपाय व्यर्थ हो गये हैं। न चन्दन का लेप काम करता है, न चन्द्रमा की शीतल चाँदनी और न ही कमलिनी ही। स्थिति तो ऐसी चरम सीमा पर पहुँच गयी है कि इन साधनों को सोचते हुए वह और अधिक जलने लगती हैं। ज्वर कभी-कभी चढ़ते-चढ़ते इतना थका देता है कि शरीर एकदम स्वेद के प्रभाव के कारण शीतल हो जाता है। वह विरहिनी अपने अशान्त मन में केवल तुम्हारा ही ध्यान करती हैं और विरह में क्षीण होकर वह कातर विजातीय यन्त्रणा में भी उस ध्यान के क्षण को उत्सव मानकर प्राण प्राप्त करती हैं। यदि आप सोचें कि वह इस समय कैसे जी रही है, कैसे साँस ले रही है, तो उत्तर यही है कि आप ही उसके एकमात्र प्रियतम हैं, आपका शीतल वपु उसे स्पर्श करने के लिए प्राप्त हो जाय। इस प्राप्त्याशा में कुछ क्षणों तक जी रही हैं। यदि आप अविलम्ब नहीं मिले तो हो सकता है वह पुन: जीवित न मिलें। प्रस्तुत श्लोक में विरोधाॐलंकार है, अद्भुत रस है तथा शार्दूलविक्रीड़ित छन्द है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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