गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 21

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

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'मेघैर्मेदुरमम्बरम्' इस श्लोक में कह रहे हैं कि श्रीराधामाधव की सर्वोत्कृष्ट रह:केलि जययुक्त हो। 'माधव' पद के द्वारा इस कार्य की सूचना दी गई है कि यद्यपि श्रीभगवान लक्ष्मीपति हैं फिर भी उनका श्रीराधा में ही प्रेमाधिक्य है। श्रीकृष्ण स्वयं-भगवान हैं, सर्व-अवतारी हैं; सभी अवतारों में सर्वश्रेष्ठ हैं श्रीमद्भागवत में श्रीसूतजी ने ऐसा ही निर्णय किया है। श्रीबृहद्रगौतमीय तन्त्र में कहा गया है "देवी कृष्णामयी प्रोक्ता राधिका परदेवता। सर्वलक्ष्मीमयी सर्वस्यान्त:संमोहिनी परा।" श्रीमती राधिका द्योतमाना, परमा सुन्दरी हैं। ये कृष्णक्रीड़ा की वसति नगरी अर्थात आश्रय स्वरूपा हैं। कृष्णमयी कृष्ण इनके भीतर-बाहर अवस्थित रहते हैं। निरन्तर कृष्ण की अभिलाषा पूर्ण करती हैं समस्त देवताओं में सर्वश्रेष्ठा हैं समस्त लक्ष्मियों में परम लक्ष्मी-स्वरूपा हैं। सभी की हृदय-स्वरूपा हैं, श्रीकृष्ण-चित्ताकर्ष का हैं, परा हैं।

ये श्रीश्रीराधामाधव इस काव्य-रचना की निर्विघ्न परिसमाप्ति के लिए अनुग्रह प्रदान करें इस प्रकार कवि के द्वारा शिष्टाचार परम्परा का निर्वाह किया गया है।

जय शब्द से तात्पर्य है- लीलाओं का सर्वोत्कृष्ट और भक्तजनों के द्वारा नमस्करणीय होना। ये लीलाएँ भगवान की स्वरूपशक्ति की वृत्तिरूपा हैं, अत: ये जययुक्त हों।

अब प्रश्न होता है कि कौन-सी लीलाएँ जययुक्त हों? इसके उत्तर में कहा है यमुनाकूले यमुना के तट पर अवस्थित श्रीराधामाधव की कुञ्ज गृह की लीला जययुक्त हों। इस पद के द्वारा रतिजनित श्रम को दूर करने वाला शिशिर समीर सम्प्राप्ति युक्तत्त्व को सूचित किया गया है।

यह कुञ्ज तमाल वृक्षों के द्वारा सघन रूप से आच्छादित होकर श्याम वर्ण हो गया है, इसको लक्ष्य करके पथ का निर्देश किया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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