गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 207

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ नवम: सन्दर्भ

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स्मरातुरां दैवत-वैद्य-हृद्य! त्वदंगसंगामृतमात्रसाध्यम्।
निवृत्तबाधां कुरुषे न राधामुपेन्द्र! वज्रादपि दारुणोऽसि ॥2॥[1]

अनुवाद- देववैद्य अश्विनीकुमार से भी सुनिपुण सुचिकित्सक श्रीकृष्ण! हे उपेन्द्र! अनगंताप से पीड़िता श्रीराधा एकमात्र आपके अंग-संयोग रूप औषधामृत से ही जीवन धारण कर सकती हैं। उस दु:साध्य रोग वाली कामातुर श्रीराधा को इस मुमुर्षु दशा में यदि आप बाधा-रहित नहीं बनाते हैं तो निश्चय ही आप वज्र से भी कठोर समझे जायेंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- हे दैवतवैद्यहृद्य, (देववैद्यादपि हृदयंग़म! वैद्याभ्यास-कृत्यनिपुण इति वा) त्वदंगसंगामृतमात्रसाध्यां (तव अंगसंग एव अमृतं तन्मात्रेण साध्यां प्रतिकार्यां) स्मरातुरां (कामार्त्तां) राधां [यदि] विमुक्त-वाधां (रोगमुक्तां) न कुरुष्वे (तर्हि) हे उपेन्द्र, त्वं वज्रादपि दारुण: (कठोर:) असि (भवसि) [यद्वात्वम् उपेन्द्रवज्रादपि इन्द्रवज्रात् उप अधिकम् उपेन्द्रवज्रं तदपि चेद्भवेत् तस्मादपि, दारुण: असि]। [अंगसंग-मात्र-साध्य-कर्माकरणेन काठिन्यमेव ते पर्यवसितमित्यर्थ:] ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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