गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 201

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्

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नयन-विषयमपि किसलय-तल्पम्।
कलयति विहित-हुताशवि-कल्पम्
राधिका विरहे.... ॥6॥[1]

अनुवाद- मनोरम नवीन पल्लवों की शय्या को साक्षात रूप से विद्यमान देखकर भी उसे विभ्रम के कारण प्रदीप्त हुताशन (आग) के समान मान रही हैं।

पद्यानुवाद
पल्लवोंकी सेज लखती
'आग-सी' कहती सुलगती।

बालबोधिनी- विरह में श्रीराधा उद्विग्ना हो गयी हैं। सामने नये-नये लाल-लाल किसलयों से निर्मित शय्या को देखती हैं तो उसे लगता है जैसे चिता रची गयी है, उस चिता में आग धधक रही है। प्रत्यक्ष में श्रीराधा को भ्रम हो रहा है, क्योंकि उनकी आँखें आप में लगी हुई हैं। अग्नि के समान ताम्र-वर्ण वाले नवीन पल्लवों से रचित शय्या में अग्नि का भ्रम हो रहा है उसे। सदृश वस्तु में ही सदृश वस्तु का संशय होता है। अग्नि ताम्रवर्ण का तथा सन्तापकारक होती है, किसलय भी ताम्रवर्ण का विरहणियों के लिए सन्तापकारी होता है। श्रीराधा को किसलय में आगका भ्रम हो रहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- किशलय-तल्पमपि (पल्लव-शय्यामपि) नयन-विषयं (नेत्रगोचरं) विहित-हुताश-विकल्पं (विहित: जनित: हुताशस्य अग्ने: विकल्प: भ्रमो यत्र तादृशं यथा स्यात् तथा) गणयति (मन्यते) ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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