विषय सूची
श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्
नयन-विषयमपि किसलय-तल्पम्। अनुवाद- मनोरम नवीन पल्लवों की शय्या को साक्षात रूप से विद्यमान देखकर भी उसे विभ्रम के कारण प्रदीप्त हुताशन (आग) के समान मान रही हैं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- विरह में श्रीराधा उद्विग्ना हो गयी हैं। सामने नये-नये लाल-लाल किसलयों से निर्मित शय्या को देखती हैं तो उसे लगता है जैसे चिता रची गयी है, उस चिता में आग धधक रही है। प्रत्यक्ष में श्रीराधा को भ्रम हो रहा है, क्योंकि उनकी आँखें आप में लगी हुई हैं। अग्नि के समान ताम्र-वर्ण वाले नवीन पल्लवों से रचित शय्या में अग्नि का भ्रम हो रहा है उसे। सदृश वस्तु में ही सदृश वस्तु का संशय होता है। अग्नि ताम्रवर्ण का तथा सन्तापकारक होती है, किसलय भी ताम्रवर्ण का विरहणियों के लिए सन्तापकारी होता है। श्रीराधा को किसलय में आगका भ्रम हो रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- किशलय-तल्पमपि (पल्लव-शय्यामपि) नयन-विषयं (नेत्रगोचरं) विहित-हुताश-विकल्पं (विहित: जनित: हुताशस्य अग्ने: विकल्प: भ्रमो यत्र तादृशं यथा स्यात् तथा) गणयति (मन्यते) ॥6॥
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