गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 198

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्

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श्वसित-पवनमनुपम-परिणाहम्।
मदन-दहनमिव वहति सदाहम्
राधिका विरहे.... ॥3॥[1]

अनुवाद- मदनानल की ज्वालाओं से सन्तप्त दीर्घ नि:श्वास उनके शरीर को दग्ध किये जा रहे हैं, फिर भी वह उनका वहन कर रही है।

पद्यानुवाद

श्वासका आधार बनता।

दहनका उपचार बनता॥

बालबोधिनी- विरह-विच्छेद से अन्त:करण में सन्ताप अति असहनीय हो गया है, उपचार करने के लिए गरम-गरम उसाँस छोड़ती हैं तो लगता है सारा शरीर धधक रहा है, मदन ही इस आग में धधक रहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अनुपम-परिणाहं (अनुपम: अतुल: परिणाह: दैर्घ्यं यस्य तं सुदीर्घमित्यर्थ:) सदाहं (दाहसहितं) श्वसित-पवनं (निश्वास-मारुतं) मदन-दहनं (कामाग्निम्) इव बहति [सन्तप्ताया नि:श्वासो पि सन्तप्त इत्यर्थ:] ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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