गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 194

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ अष्टम: सन्दर्भ

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आवासो विपिनायते प्रिय-सखी-मालापि जालायते
तापोऽपि श्वसितेन दाव-दहन-ज्वाला-कलापायते।
सापि त्वद्विरहेण हन्त हरिणी-रूपायते हा कथं
कन्दर्पोऽपि यमायते विरचयञ्शार्दुल-विक्रीड़ितम् ॥1॥[1]

अनुवाद- हे श्रीकृष्ण! मेरी सखी श्रीराधा एक हिरनी की भाँति आचरण करने लगी है, अपने आवास को तो उसने अरण्य मान लिया है, सखीवृन्द उसे किरात-जाल सा भासता है, निज सन्तप्त नि:श्वासों से अभिवर्द्धित शरीर का सन्ताप दावानल-शिखा की भाँति प्रतीत हो रहा है। हाय! कन्दर्प भी शार्दूल स्वरूप होकर क्रीड़ा करता हुआ उसके प्राणों का हनन करने का उपक्रम करते हुए यम बन गया है।

पद्यानुवाद
गृह भी वन सा भास रहा है, (बजी कौन सी भेरी?)
उसे सखी भी दीख रही हैं, घेरे बनी अहेरी
श्वासोंका उनाप जलाता है, दावा की आगी
'काम' व्याघ्रसे डरी-डरी फिरती हरिणी-सी भागी॥

बालबोधिनी- सखी के द्वारा श्रीराधा की दैन्य-स्थिति का चित्रण हो रहा है। श्रीराधा श्रीकृष्ण के वियोग में हरिणी के समान आचरण कर रही हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [त्वां बिना न कुत्रपि सा निर्वृञ्त लभते इत्याह]- हन्त (खेदे) [हे कृष्ण] त्वद्रविरहेण (तव विच्छेदेन) सापि (राधापि) हरिणी-रूपायते (आत्मानं हरिणीरूपामिव आचरतीत्यर्थ:; श्लेषोक्त्या पाण्डुवर्णा जाता इत्यर्थ:); [तथाहि] [तस्या:] आवास: (वसतिस्थानं) विपिनायते (विपिनमिव आचरति; वनीभूतं मन्यते इतिभाव:); [तस्या:] प्रियसखीमालापि (प्रियसखीसमूहोपि) जालायते (जालमिव आचरति; स्थानान्तरं गन्तुं प्रतिवध्नातीति भाव:); ताप: (देह-सन्ताप:) अपि श्वसितेन (श्वासानिलेन) दाव-दहन-ज्वालाकलापायते (दावदहनस्य दावाग्ने: ज्वाला-कलाप इव आचरति; यथा वातेन अग्नरुल्का निर्दहन्ति तद्वदिति भाव:); [किंबहुना] हा, (अत्यन्त-शोक-क्षोभसूचकमव्ययम्) कन्दर्पो पि (मदनोऽपि) शार्दूल-विक्रीड़ितं (शार्दुलस्य विक्रीड़ितम् आचरितं) विरचयन् (कुर्वन्) कथं समायते (यम इव आचरति; महदेतदनुचितं मम प्राणहरणचेष्टना-दित्यभिप्राय:); [प्रत्येकेनानेन हरिण्याइव श्रीराधाया: प्रियतमे दृढ़ानुराग: श्रीकृष्णस्य च स्निग्धायामस्नेहव्यवसायात्र काठिन्यं प्रदर्स्तिम्] ॥1॥

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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