गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 192

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ अष्टम: सन्दर्भ
8. गीतम्

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ध्यान-लयेन पुर: परिकल्प्य भवन्तमतीव दुरापम्।
विलपति हसति विषीदति रोदिति चञ्चति मुञ्चति तापम्॥
सा विरहे तव दीना... ॥7॥[1]

अनुवाद- श्रीराधा तुम्हारे ध्यान में लीन होकर तुम्हें प्रत्यक्ष रूप में कल्पित करके विच्छेद यन्त्रणा से कभी विलाप करती हैं, कभी हर्ष प्रकाशित करती हैं तो कभी रोती हैं और कभी स्फूर्त्ति में आलिंगित हो सन्ताप का परित्याग करती हैं।

पद्यानुवाद
ध्यानमग्न हो चौंक समझती, सम्मुख हैं यदुवीर
कभी विलपती, कभी कलपती, होकर अधिक अधीर।

बालबोधिनी- सखी कह रही है- हे श्रीकृष्ण! अन्वेषण आदि के द्वारा श्रीराधाके लिए आप दुष्प्राप्य हो गये हैं, ध्यान में लीन होकर परिकल्पना करती हैं कि तुम उसके समीप ही हो। सम्मुख अनुभव होने पर चित्र बनाती है और चित्रलिखित तुम्हें देखने पर अपने निकट जानकर हँसने लगती हैं, मन में प्रसन्नता की हिलोरें तरंगायित होने लगती हैं, लेकिन आपके द्वारा आलिंगन न किये जाने पर उनका उन्मादित अट्टहास क्रन्दन में बदल जाता है, तुम्हारी कल्पित प्रतिमूर्त्ति के तिरोहित होने पर पुन: आलिंगित करने का उपक्रम करती हैं। सोचती है, यदि श्रीकृष्ण मुझे देखेंगे तो मेरे वशवर्ती हो जाएँगे इस आभास से अपनी छटपटाहट, छनछनाहट और सन्ताप का परित्याग करती हैं।

रसिकप्रियाके अनुसार विलपति न होकर 'विलिखति' होना चाहिए। इसमें दीपक अलप्रार है। नायिकाका किलकिञ्चित् भाव है ॥7॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [पुनश्च अतिव्यग्रतया ध्यानलयेन भवन्तं साक्षादिव कृत्वा विलपतिज लहे कृष्ण] अतीव दुरापं (दुर्लभं) भवन्तं ध्यानलयेन (समाधियोगेन) पुर: परिकल्प्य (सम्भाव्य) विलपति; [त्वत्प्राप्त्यानन्दोच्छलिता सती] हसति; [पुनस्तवान्तर्द्धाने] विषीदति, रोदिति च; [पुन: स्फुरन्तं भवन्तमुद्दिश्य] चञ्चति (इतस्ततो धावति); [पुनश्च प्राप्तमिति सम्भाव्य आलिंगनादिना] तापं (मन:क्षोभं) मुञ्चति (त्यजति च) ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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