गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 191

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ अष्टम: सन्दर्भ
8. गीतम्

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प्रतिपदमिदमपि निगदति माधव तव चरणे पतिताऽहम्।
त्वयि विमुखे मयि सपदि सुधानिधिरपि तनुते तनुराहम्॥
सा विरहे तव दीना... ॥6॥[1]

अनुवाद- हे माधव! (उस मूर्त्ति के रूप में तुम्हें अंकित कर बार-बार प्रार्थना करती हैं) हे श्रीकृष्ण! मैं आपके चरणों में पड़ती हूँ देखो, जैसे ही तुम मुझसे विमुख हो जाते हो, यह अमृत-कलश को धारण करने वाला चन्द्रमा भी मेरे शरीर पर दाह-वृष्टि करने लगता है।

बालबोधिनी- सखी कह रही है हे श्रीकृष्ण! श्रीराधा जहाँ-जहाँ भी जाती हैं, वहीं प्रत्येक पग-पग पर कहती हैं मैं आपके चरणों में पड़ी हूँ, आप मुझसे विमुख न हो, आप जब कभी भी मुझसे असन्तुष्ट होते हैं, उसी समय अमृत-निधि चन्द्रमा भी मेरे शरीर में दाह ही पैदा करता है। रसमञ्जरीकार ने 'माधव' शब्द से श्रीराधा का तात्पर्य संकेतित करते हुए कहा है कि कृष्ण, 'मा' शब्द से कही जाने वाली लक्ष्मी के धव अर्थात पति हैं। जब श्रीकृष्ण श्रीराधा के सन्निकट रहते हैं, तब सपत्नी लक्ष्मी भी श्रीराधा का कुछ भी बिगाड़ नहीं पाती, परांमुख होने पर तो लक्ष्मी का भाई चन्द्रमा श्रीराधा को अपनी बहन की सौत समझकर अत्यन्त सन्तप्त करता है।

प्रस्तुत श्लोक में अतिशयोक्ति अलंकार है। चन्द्रमा अपने स्वभाव के विरुद्ध कार्य कर रहा है, अतएव 'विरुद्ध' अलंकार भी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [न केवलं प्रणमति, परन्तु]- प्रतिपदम् (प्रतिक्षणम्) इदं निगदति च हे माधव (हे मधुसख) अहं तव चरणे पतिता (त्वामेव शरणं व्रजामीत्यर्थ:); [यत:] त्वयि विमुखे [सति] सुधानिधिरपि (अमृतकिरणो पि चन्द्र:) मयि सपदि (तत्क्षणादेव) तनुदाहं तनुते (शरीरं भस्मीकरोति) ॥6॥

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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