गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 190

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ अष्टम: सन्दर्भ
8. गीतम्

Prev.png

विलिखति रहसि कुरंग-मदेन भवन्तमसमशर-भूतम्।
प्रणमति मकरमध्ये विनिधाय करे च शरं नवचूतम्
सा विरहे तव दीना... ॥5॥[1]

अनुवाद- हे श्रीकृष्ण! श्रीराधा एकान्त में कस्तूरी से, तुम्हें साक्षात्र कन्दर्प मान आम्रमञ्जरी का बाण धारण किये हुए तुम्हारी मोहिनी मूर्त्ति चित्रित करती हैं और वाहन स्थान पर मकर (घडियाल) बनाकर प्रणाम करती हैं।

पद्यानुवाद
मृगमदसे हरि चित्र खींचती, फिर लख उसमें 'काम'
आम्र-मञ्जरी शर मार करमें, करती सलज प्रणाम।
जिन चरणोंमें रत माधव! वह, वही बँधासे धीर।
देख विमुख, यह चन्ं जलाकर बढ़ा रहा है पीर॥
वह विरह विदग्धा दीना।
माधव, मनसिज विशिख भयाकुल तुममें है तल्लीना॥

बालबोधिनी- जब श्रीराधा एकान्त में बैठी होती हैं तो कस्तूरी के रस से आपका चित्र रचती हैं कामदेव के रूप में। क्योंकि आपके अतिरिक्त चित्त-उन्मादकारी और कौन हो सकता है अथवा आप ही उसकी कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। इसके पश्चात् आपके हाथ में काम का सबसे शक्तिशाली बाण आम्रमञ्जरी को अंकित कर देती है। कामदेवता के रूप में आपको अभिलिखित कर वाहन के स्थान पर मकर बना देती हैं, पुनश्च काम-ताप से मुक्ति पाने के लिए आपको प्रणाम करती हैं, स्तवन करती हैं।

प्रस्तुत पद्य में उपमा अलंकार है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [पुनश्च] रहसि (एकान्ते) कुरंगमदेन (कस्तूर्य्या) असमशरभूतं (कामस्वरूपं) भवन्तं स्वचित्तोन्मादकत्वात् विलिखति, अध: (तस्य कामरूपस्य भवत: अधस्तात्र) मकरं (कामवाहनं) [विन्यस्य] [लिखितस्य मदनभूतस्य भवत:] करे (हस्ते) नवचूतं (चूतांकुरस्वरूपं) शरं विनिधाय (लिखित्वा) [त्वदन्य: कामो नास्तीति मत्वा] प्रणमति च ॥4॥

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः