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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ अष्टम: सन्दर्भ
8. गीतम्
अनुवाद- यह आठवाँ प्रबन्ध कर्णाट राग तथा एकताली ताल से गाया जाता है। जब शिखिकण्ठ नीलकण्ठ महादेव एक हाथ में कृपाण और दूसरे हाथ में एक विशाल गजदन्त धारणकर दाहिने कन्धे में रखकर चलते हैं, सुर-चारण आदि उनकी स्तुति करते हैं, ऐसे समय में कर्णाट राग प्रस्तुत होता है। अनुवाद- हे माधव! वह श्रीराधा आपके विरह में कातर होकर मदन-बाण के वर्षण के भय से भीत होकर उस मन्द-सन्ताप की शान्ति के लिए ध्यान-योग के द्वारा आप में निमग्न होकर आपके शरणागत हुई हैं। आप से विच्युत होकर वह चन्दन को विनिन्दित करती हैं, चन्द्र-किरणों को देखकर उनकी देह दग्ध होने लगती है, मलय-समीरण भी उसके अंगो में सन्ताप बढ़ा रहा है। विषधर सर्पों से परिवेष्टित चन्दन वृक्षों से प्रवाहित फुत्कार-मिश्रित होने के कारण मलय-समीर को भी गरल समान मान रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ध्रुवपदम्
- ↑ अन्वय- हे माधव, तव विरहे दीना (कातरा) सा (राधा) मनसिजविशिखभयादिव (मनसिजस्य कामस्य विशिखेभ्य: बाणेभ्य: भयादिव) भावनया (उद्वेगेन) त्वयि लीना (ध्यानेन लयप्राप्ता) [इव आस्ते इति शेष:, कामरूपे त्वयि प्रसन्ने तर्यं न करिष्यतीत्यभिप्राय:]; [सा अधुना चन्दनम् इन्दुकिरणं (चन्द्रमयुखं) निन्दति, [स्वभावशीतलो यन्मां दहत: तन्ममैव दुर्द्दैवमिति] अनु (पश्चात्) अधीरं [यथा तथा] खेदं (तापं) विन्दति (लभते); [तथा] मलय-समीरं व्याल निलयमिलनेन (व्यालानां सर्पाणां निलय: चन्दनतरु: तस्य मिलनेन) गरलमिव कलयति (सम्भावयति) [सर्पभुक्तोज्झितो वायु: विषमिलितत्त्वात्र विषवत्र उत्प्रेक्षते] ॥1॥
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