गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 180

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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पद्यानुवाद
वे स्पर्शजनित सुख कोमल, चल दृष्टिक्षेप रस भीने
वह वदन कमल मधु सौरभ, वे वचन सुधा मधुलीने।
वे मधुर अमार बिम्बा सम, तन्मय करते यों मनको
जैसे समाधिमें योगी, विस्मृत कर देते तनको।
संलग्न मयान सखि! तुझमें पर विरह व्यथा यह मेरी
भूली है लेश न मुझको, घेरे हैं बनी अहेरी ॥13॥

बालबोधिनी- भावना की प्रबलता से श्रीराधा के साथ विलास की स्फूर्त्ति होने पर अन्त:करण में बहती हुई विरह-व्याधि की प्रतिकूलता का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं श्रीराधा में मेरा मन समाधिस्थ हो गया है, तथापि विरह क्यों मुझे सता रहा है, क्योंकि विरह तो वहाँ होता है जहाँ खेद एवं वियोग होता है, जबकि मेरा मन तो श्रीराधा में संलग्न है। मन: संयोग के अभाव में विरह माना जा सकता है, परन्तु मन तो यहाँ संयुक्त है, फिर भी विरह इसलिए है कि इन्द्रिय संयोग का अभाव है। अत:पर यह भी कहा गया है कि विषयों के न रहने पर भी मन-ही-मन इन्द्रियसुख का अनुभव होने से उसे संयोग कहा जा सकता है, परन्तु विरह बना हुआ होता है।

यथार्थ क्या है? मिलन में जो अनुभव होता था, वही अनुभव विरह में भी हो रहा है। त्वचा से श्रीराधा के स्पर्शजनित पूर्वानुभूत सुख को ही अनुभव कर रहा हूँ, चक्षु से उसके प्रेमाद्रनेत्रों की तरल प्रीति रसधार को देख रहा हूँ, नासिका से श्रीराधिका के मुखकमल के पूर्वानुभूत सौगन्ध का आघ्राण कर रहा हूँ। समाधि में प्रत्यक्षमाणा श्रीराधा की वाणी की अमृत-स्राविणी वक्रिमा का श्रवणास्वादन कर रहा हूँ, तथैव बिम्बफल सदृश अरुणिम सुकुमार अधराधर की मधुर सुधारस माधुरी में अवगाहन कर रहा हूँ। इस प्रकार पाँचों प्रकार के विषयों का सम्बन्ध मेरे साथ बना हुआ है। तथापि न जाने क्यों विरहजनित समाधि बढ़ती जा रही है?

प्रस्तुत श्लोक में शार्दूल विक्रीड़ित छन्द है, समुच्चयालंकार तथा विप्रलम्भ श्रृंगार है ॥13॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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