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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:
अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्
भ्रूचापे निहित: कटाक्ष-विशिखो निर्मातु मर्मव्यथां अनुवाद- हे छरहरी देहयष्टिवाली (इकहरे बदन वाली) राधे! तुम्हारे भ्रूचाप से निक्षिप्त कटाक्ष विशिख (बाण) मेरे हृदय को निदारुण पीड़ा से पीड़ित करे, तुम्हारा श्यामल कुटिल केशपाश मेरा वध करने का उपक्रम करे, तुम्हारा यह बिम्बफल के समान राग-रञ्जित अधर मुझमें मोह उदित करे, किन्तु तुम्हारा यह सद्रवृत्त (सुगोल) मनोहर मण्डलाकार स्तनयुगल सुचरित होकर क्रीड़ा के छल से मेरे प्राणों के साथ क्यों क्रीड़ा कर रहा है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [अधुना तत्कटाक्षादि-स्मरणेन स्वस्य सातिशय-पीड़ां वर्णयतिज हे तन्वि (कृशांगि) भ्रूचापे (भ्रूरेव चापो धनु: तत्र) निहित: (अर्पित:) कटाक्षविशिख: (कटाक्ष एव विशिख: शर:) मर्मव्यथां (मर्माणि व्यथां) निर्मातु (विदधातु) [नात्रप्यनौचित्यं चापार्पितबाणस्य मर्मव्यथादायक-स्वभावत्वादिति भाव:; श्यामात्मा (श्यामवर्ण:; अन्यत्र मलिनस्वभाव:) कुटिल: (भंगिभृत्; अन्यत्र वक्रस्वभाव:) कबरीभार: (केशपाश:) अपि मारोद्यमं (मारस्य अन्यत्र मारणस्य उद्यमं) करोतु [कुटिलस्य मलिनस्वभावस्य च मारक-स्वभावत्वादितिभाव:]; अयञ्च रागवान् (रक्तवर्ण:; अन्यत्र क्रोधन:) विम्बाधर: (विम्बफलवत्र अधर:) मोहं तावत्र तनुतां (विदधातु) [स्वभावकोपनस्य प्रहारादिना मोहजनकत्वादिति भाव:]; तव सद्रवृत्तं (सुगोलं अन्यत्र सुचरित्रं) स्तनमण्डलं कथं मम प्राणै: क्रीड़ति (प्राणहरणरूपांक्रीड़ां किमिति करोतीत्यर्थ:) [सद्रवृत्तस्य परपीड़ाकरणमनुचितमितिभाव:] ॥12॥
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