गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 170

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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हृदि विसलता-हारो नायं भुजंगम-नायक:
कुवलय-दल-श्रेणी कण्ठे न सा गरल-द्युति:
मलयज-रजो नेदं भस्म-प्रिया-रहिते मयि
प्रहर न हर-भ्रान्त्या न क्रुधा किमु धावसि? ॥9॥[1]

अनुवाद- हे अनंग! क्या तुम मुझे चन्द्रशेखर जानकर रोष भरकर कष्ट दे रहे हो? तुम्हारी यह कैसी विषमता है? मेरे हृदय में जो कुछ देख रहे हो, वह भुजंगराज वासुकि नहीं है, यह तो मृणाल लता निर्मित हार है। कण्ठदेश में विष की नीलिमा नहीं है, नील कमल की माला है। यह प्रियाविहीन मेरी इस देह पर चिताभस्म नहीं, यह तो चन्दन का अनुलेपन है।

इसलिए हे मन्मथ! तुम निवृत्त हो जाओ, भ्रम में पड़कर मुझ पर व्यर्थ ही विषम बाण की वर्षा मत करो, क्रोध करके मेरी ओर क्यों दौड़ रहे हो? और देखो! महादेव पार्वती के साथ अर्द्ध में मिलित होकर सुख से विराज रहे हैं, परन्तु मेरी प्राणाधिका राधिका के साथ मिलन तो बहुत दूर की बात, वह कहाँ है, मैं भी नहीं जानता हूँ ॥9॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अधुना मन्मथमुपालभतेज]- हे अनंग, क्रुधा (कोपेन) किमु (कथं) धावसि? [मदर्थञ्चेत्र, तर्हि] हरभ्रान्त्या (शप्ररभ्रमेण) प्रियारहिते मयि न प्रहर (प्रहारं मा कुरु) [हरस्तु प्रिर्याद्धांगयुक्त: अतो नाहं हरोऽस्मि; तल्लक्षणादिकं चेत्र दृश्यते मयि इत्यपि न; तथाच हरभ्राञ्न्त वारयति] हृदि (मम वक्षसि) अयं विसलताहार: (विसलताया मृणालस्य हार:); [विरहतापशान्त्यर्थं ध्रियते इति भाव:] भुजंगम-नायक: (भुजगपति: शेष: य: हरेण मालाकारेण हृदि ध्रियते इति स:) न। कण्ठे कुवलय-दलश्रेणी (कुवलयानां नीलोत्पलानां दलश्रेणी दलपंक्ति:), [शैत्याय ध्रियते इति भाव:]; सा (प्रसिद्धा) गरलद्युति: (हलाहलकान्ति; या हरकण्ठे विराजते सा) न। [किञ्च] इदं (मम गात्र्लग्नं) मलयज-रज: (चन्दनरेणु:) विरहताप-शान्त्यर्थं शैत्याय सौगन्धाय ध्रियते इति भाव:] भस्म (हरगात्रलग्नं भषितं) न ॥9॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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