गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 169

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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वर्णितं जयदेवकेन हरेरिदं प्रवणेन।
केन्दुविल्व-समुद्रसम्भव-रोहिणी-रमणेन-
हरि हरि हतादरतया... ॥8॥[1]

अनुवाद- केन्दुविल्व नामक ग्रामरूप समुद्र से जो चन्द्रमा की भाँति आविर्भूत हुए हैं, जिन्होंने श्रीकृष्ण की विलापसूचक वचनावली का संग्रह किया है ऐसे कवि श्रीजयदेव विनम्रता के साथ इस गीत का वर्णन कर रहे हैं।

बालबोधिनी- कवि श्रीजयदेव जी ने अत्यन्त विनयपूर्वक श्रीराधा के प्रति श्रीकृष्ण के विरह-विलाप का वर्णन किया है। समुद्र से जैसे चन्द्रमा का उर्व होता है, उसी प्रकार केन्दुविल्व गाँव में जयदेव नामक कवि का आविर्भाव हुआ है। श्रीजयदेव कवि का एक नाम पीयूषवर्षी है। पीयूषवर्षी चन्द्रमा का भी एक नाम है। रोहिणीरमण चन्द्रमा का ही नाम है। चन्द्रमा से जैसे सभी लोग आनन्दित होते हैं, उसी प्रकार इस गीतिकाव्य से भी सभी लोग आनन्दित होंगे ॥8॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- केन्दुबिल्व-समुद्र-सम्भव-रोहिणी-रमणेन (केन्दु-बिल्वनामा ग्राम: स एव समुद्रं तस्मात्र सम्भवतीति तथोक्त: य: रोहिणीरमण: चन्द्र: तेन) जयदेवकेन प्रवणेन (प्रणतेन सता; नम्रेण इत्यर्थ:) हरे: (कृष्णस्य) इदं (विरहगीतं) वर्णितं (रचितम्) ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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