गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 164

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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तामहं हृदि सतामनिशं भृशं रमयामि।
किं वनेऽनुसरामि तामिह किं वृथा विलपामि-
हरि हरि हतादरतया... ॥4॥[1]

अनुवाद- हाय! जब मैं सदासर्वदा श्रीराधा को अपने हृदय-मन्दिर में प्रत्यक्ष अनुभव कर मन-ही-मन प्रगाढ़रूप से आलिंगन करता हूँ, तब मैं उसके लिए क्यों वृथा ही विलाप कर रहा हूँ, क्यों उसको वन-वन में ढूँढ़ता फिर रहा हूँ?

पद्यानुवाद
राजित है वह सुन्दर प्रतिमा मन-मन्दिरमें मेरे,
साँसें करती रहतीं जिसके फेरे साँझ-सबेरे।
किस वनमें प्रिय जाऊँ, खोजूँ पदचिह्नोंको तेरे?
कब तक रहुँ बरसता, आंखोंमें बदलीको घेरे?

बालबोधिनी- विरह में अतिशय व्याकुल अन्तर्मन में श्रीराधा की स्फूर्त्ति प्राप्त होने पर श्रीकृष्ण कहते हैं, श्रीराधा तो अहर्निश मेरे मन-मन्दिर में रहने वाली मेरी प्रियतमा प्रेयसी हैं और अपनी हृदयस्थिता उन श्रीराधा के साथ मैं अत्यधिक रमण करता रहता हूँ। वे मुझसे कभी वियुक्त होतीं ही नहीं। वन में जब है ही नहीं, तो उसमें उनको खोजने से क्या लाभ है और यहाँ देखकर मैं जो विलाप कर रहा हूँ वह भी व्यर्थ है ॥4॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- किम् (कथं) वने ताम् अनुसरामि (अन्वेषयामि) [न करकलितरत्नं मृग्यते नीरमध्ये इत्याभिप्राय:]; [तामुद्दिश्य वृथा किं (कथं) विलपामि [एतद्विलपनं निष्फलमित्यर्थ:]; अहं हृदि स ताम् (हृदयस्थां) [अपि] ताम् (राधाम्) अनिशं (निरन्तरं) भृशं (अत्यर्थं) रमयामि (तया सह विहरामि इत्यर्थ:) ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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