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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:
अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्
चिन्तयामि तदाननं कुटिल भ्रु-कोपभरेण। अनुवाद- मैं श्रीराधा के मँडराते हुए श्याम भ्रमरों के द्वारा परिवेष्टित आरक्त मुखकमल को प्रत्यक्ष की भाँति देख रहा हूँ, जो रोष-भार से कुटिल भ्रूलतायुक्त रक्तपद्म की शोभा को धारण किये हुए हैं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि सम्प्रति मुझे श्रीराधा के मुखपद्म का स्मरण हो रहा है। उनकी भौंहें क्रोध के कारण और अधिक कुटिल हो गयी होंगी। कोप के भार से श्रीराधा का गोरा तथा लाल मुखड़ा कुटिल कान्ति वाली भौंहों से उसी प्रकार सुशोभित हो रहा है जैसे लाल कमल के ऊपर मँडराते हुए काले भ्रमरों की पंक्ति व्याप्त हो। प्रस्तुत श्लोक में वाक्यार्थी उपमा अलंकार है, क्योंकि यहाँ रोषमय मुख की उपमा लाल कमल से तथा कुटिल काली भौंहों की समानता काले भ्रमरों की पंक्ति से की गयी है ॥3॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- कोपभरेण (कोपातिशयेन) कुटिलभ्रू (कुटिले वक्रे भ्रूवौ यत्र तादृशं) तदाननम् (तस्या: प्रियतमाया आननम्) उपरि भ्रमता भ्रमरेण आकुलं (व्याप्तं) शोणपद्ममिव (रक्तपप्रजमिव) चिन्तयामि ॥3॥
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