गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 159

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ
7. गीतम्

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गुर्जरी रागेण यति तालेन च गीयते।

मामियं चलिता विलोक्य वृतं वधू-निचयेन।
सापराधतया मयापि न निवारिताति भयेन॥
हरि हरि हतादरतया गता सा कुपितेव ॥1॥ध्रुवम्॥[1]

अनुवाद- वह श्रीराधा व्रजांगनाओं से परिवेष्टित मुझको देखकर मान करके चली गयीं। अपने को अपराधी समझकर भय के कारण मैं उसे रोकने का साहस भी न कर सका। हाय! वह समादृत न होने के कारण क्रुद्ध सी होकर यहाँ से चली गयी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- इयं (राधा) वधूनिचयेन (वधुनां नारीणां निचयेन समूहेन) वृतं (परिवेष्टितं) मां [दूरतएव] विलोक्य चलिता [अनेन अन्योन्यावलोकनं जातमिति गम्यते]; कथं तदैव नानुनीता मया दृष्टापि सापराधतया (आत्मानं सापराधं मन्यमानेन इत्यर्थ:) अतिभयेन (अतिभीतेनेत्यर्थ:) मयापि न वारिता (निवारिता)। हरि हरि (खेदसूचकमव्ययं हा कष्टम्) हतादरतया (अनादरवशेन) सा (श्रीराधा) कुपितेव (संजात-कोपेव) गता (प्रस्थिता) ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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