गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 158

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ

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पद्यानुवाद-
अनुतापित पीड़ित फिरते, मनसिज बाणों के व्रणमें।
हूले से जमुन-पुलिन पर, भूले से वृन्दावनमें॥

बालबोधिनी- श्रीकृष्ण के अनुभाव का वर्णन किया जा रहा है। विरह में श्रीराधा जी की जो स्थिति थी, वही स्थिति अब श्रीकृष्ण की हो गयी है। श्रीकृष्ण श्रीराधा के विरह में कामबाणों से विक्षत हो गये थे। यद्यपि वहाँ ब्रजसुन्दरियाँ समुपस्थित थीं, तथापि उन्हें उनसे उदासीनता ही बनी रही। मन:कान्ता श्रीराधा की उपस्थिति उन्हें अधिक विषादयुक्त बना रही थी। सोचा कि आज श्रीराधा का मैं समादर नहीं कर पाया, अत: वे यमुनातट प्रान्त के कुञ्ज में चली गयी हों। विषादयुक्त मन से उनका अन्वेषण करने लगे न मिलने पर अनुतप्त हो गये। यदि श्रीराधा को अनुनयविनय के द्वारा मना लिया होता, तो वे फिर यहाँ से कहीं न जातीं।

इस प्रकार पश्चात्ताप करते हुए अनंगबाण से आहत श्रीराधा के लिए विषाद करने लगे।

माधव: यह श्रीकृष्ण का नाम साभिप्राय है। मा-लक्ष्मी + धव-पति = लक्ष्मीपति; या मा-राधा + धव-प्रियतम = माधव; अर्थात् जो श्रीराधा के प्राणप्रियतम हैं, उनका श्रीराधा के विरह में व्याकुल होना उनकी (श्रीराधा की) सौभाग्य-अतिशयता का प्रतीक है।

प्रस्तुत श्लोक में 'वंशस्थविला' नाम का वृत्त है। वदन्ति वंशस्थविले जतौ जरौ यह वंशस्थविला वृत्त का लक्षण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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