गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 157

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ

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इतस्ततस्तामनुसृत्य राधिकामनंग-बाण-व्रण-खिन्न-मानस:।
कृतानुताप: स कलिन्दनन्दिनी-तटान्त-कुञ्जे विषसाद माधव: ॥2॥[1]

अनुवाद- अनंगबाण से जर्ज्जरित श्रीकृष्ण 'हाय'! मैंने श्रीराधा का क्यों परित्याग किया मेरा उनके साथ कैसे मिलन होगा इस प्रकार अनुतापयुक्त होकर श्रीराधा का इधर उधर अन्वेषण करने लगे। कहीं भी न मिलने पर यमुना के निकटवर्त्ती निकुञ्ज में विषण्णचित्त होकर पश्चात्ताप करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- स: माधव: अनंग-बाण-व्रण-खिन्नमानस: (अनंगस्य मदनस्य बाणजनितेन व्रणेन खिन्नं कातरं मानसं यस्य तादृश: सन्) इतस्तत: तां राधिकाम् अनुसृत्य (अन्विष्य) कृतानुताप: (कथमहं तस्या: सर्वोत्तमतां जानन्नापि अवज्ञातवान् इति जातमनस्ताप: सन् इत्यर्थ:) कलिन्द-नन्दिनी-तटान्तकुंजे (कलिन्दनन्दिनी यमुना तस्या: तटान्ते कुलप्रान्ते य: कुंज: तत्र) विषसाद (विषादं कृतवान्) ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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