गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 156

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ

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शारदीय रासलीला की स्मृति जाग उठी समस्त गोपियों के मध्य अन्तर्हित हो श्रीकृष्ण श्रीराधा के साथ रासस्थली से चले गये तथा केश-प्रसाधन आदि श्रृंगारिक चेष्टाओं से श्रीराधा का प्रेमवद्धर्न किया। किन्तु अब श्रीराधा के सामने न होने से श्रीकृष्ण के हृदय में विरहजनित सन्ताप जाग उठा और सन्तप्त होकर उन्होंने ब्रजसुन्दरियों का परित्याग कर दिया।

कंसारि श्रीकृष्ण कंस नामक राक्षसराज के शत्रु हैं, कं सुखं सारयति विस्तारयति कंसारि:। अर्थात सुख के विस्तार करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ही कंसारि हैं।

संसार वासना-बद्ध-श्रृंखलाम् संसार = सम्यक् सार, इस समास-वाक्य के अनुसार संसार पद आनन्दमय तथा भावमय मधुररस का वाचक है। मधुर-रस विषयिणी सतत प्रवृत्त रहने वाली वृत्ति ही संसार-वासना है। श्रीकृष्ण को अपने वश में बनाये रखने के कारण रास में श्रीराधा ही श्रृंखला है।

जिस प्रकार किसी वस्तु का श्रेष्ठत्व निश्चित हो जाने पर अन्यान्य वस्तुओं को छोड़कर उस श्रेष्ठ-वस्तु को प्राप्त करने की सुदृढ़ अभिलाषा होती है वह श्रेष्ठ वस्तु ही उसके लिए आश्रय-स्वरूप हो जाता है। वैसे ही इस प्रसंग में श्रीराधा श्रीकृष्ण के लिए सुदृढ़ आश्रय स्वरूप है अथवा जैसे कोई विवेकी पुरुष तारतम्य के द्वारा सार वस्तु का निश्चय कर उसमें दत्तचित्त होकर अन्य वस्तुओं का परित्याग कर देता है, वैसे ही यहाँ श्रीकृष्ण ने साक्षातरूप में अन्यान्य गोपियों का त्याग कर दिया।

व्रजसुन्दरी:- इस पद में बहुवचन का प्रयोग होने का अभिप्राय यह है कि सौन्दर्यसम्पन्ना अनेक युवतियों का श्रीकृष्ण ने श्रीराधा के वियोग से सन्तप्त होकर परित्याग कर दिया। इससे श्रीकृष्ण की श्रीराधा में अनुराग-अतिशयता सूचित हो रही है।

इस पद्य में 'पथ्या' छन्द है ॥1॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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