गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 155

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

तृतीय: सर्ग:
मुग्ध-मधुसूदन:

अथ सप्तम सन्दर्भ

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कंसारिरपि संसार-वासना-बन्ध-श्रृंखलाम्
राधामाधाय हृदये तत्याज ब्रजसुन्दरी: 1॥[1]

अनुवाद- कंसारि श्रीकृष्ण ने श्रीराधा के पूर्व प्रणय का स्मरण कर उसे सर्वश्रेष्ठ प्रेम का सार अनुभव करते हुए संसार वासना के बन्धन की श्रृंखलारूपी श्रीराधा को अपने हृदय में धारणकर अन्य ब्रजांगनाओं के प्रेम को अकिंचित्कर जानकर उन सबका परित्याग कर दिया।

पद्यानुवाद
जग बन्वन सम प्राणोंकी मानिनि राधाको मनमें-
अंकित कर भूल गये हरि, प्रिय ब्रजवधुओंको क्षणमें॥

बालबोधिनी- पूर्व वर्णित दो सर्गों में श्रीराधामाधव के उत्कर्ष का निरूपण करते हुए अन्त में श्रीराधा का श्रीकृष्ण के प्रति अनुराग-उत्कण्ठा का निरूपण किया है। अब इस सर्ग के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण का श्रीराधा के प्रति अनुराग एवं उत्कण्ठा प्रदर्शित की जा रही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [एवं सर्गद्वयेन राधा-माधवयो: उत्कर्षवर्णन-प्रसंत: श्रीराधाया उत्कण्ठां निरूप्य इदानीं कृष्णोत्कण्ठां वर्णयति महाकवि:]- [यथा सा तस्मिन् उत्कण्ठिता तथा] कंसारि: (श्रीकृष्ण:) अपि संसार-वासना-बन्ध-श्रृंखलां (सम्यक्रसारभूताया वासना तस्या बन्धे दृढ़ीकरणे श्रृंखला निगड़रूपिणी तां) राधां हृदये (चेतसि) आधाय (आ सम्यक् प्रकारेण निवेश्य) व्रजसुन्दरी: [अन्या: व्रजांगना: इति शेष: तत्याज यथा विवेकी तारतम्येण परमपदार्थ-निश्चयात् तदेकचित्त: अन्यत् सर्वं त्यजति तद्वदिति भाव:] ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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