गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 154

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्

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बालबोधिनी- दूसरे सर्ग के अन्तिम श्लोक में महाकवि श्रीजयदेव भक्तजनों को आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि विदग्ध श्रीकृष्ण ने गोपियों की चार प्रकार की चेष्टाओं का अपने हृदय में विचार किया, इन चेष्टाओं को देखकर कोई भी मूर्ख आकर्षित हो जाया करता है।

  1. साकूतास्मितम्- गोपियों की मुस्कान स्वाभाविक तो है ही, अपितु साभिप्राय भी है। अवश्य उस स्मित में कामवासना का पुट था। तरुण पुरुष को देखकर कामिनियों की कामचेष्टाओं का विजृम्भण होना स्वाभाविक ही है।
  2. आकुलाकुललगद्धम्मिलम्- कामोंद्रेक के कारण रोमां इत्यादि हो जाने से उन गोपियों के केशबन्ध विस्रस्त हो जाते थे।
  3. श्रीकृष्ण को देखकर कामोद्रेक से उनके नयनयुगल चंचल हो गये।
  4. यद्यपि अपने भुजामूलों अथवा हाथों को ऊपर उठाने का कोई भी कारण नहीं था, फिर भी जम्भाई आदि के बहाने से वे अपने उन्नात स्तनों को कृष्ण को दिखा रही थीं।

परमविवेकी श्रीकृष्ण ने इन चेष्टाओं का अपने हृदय में विचारकर उन्हें व्यर्थ कर दिया। श्रीराधा की अपेक्षा दूसरी कोई श्रेष्ठ नहीं है, इस प्रकार अपने भक्तों के द्वारा स्तुति किये जाने वाले श्रीकेशव समस्त भक्तों के क्लेशों को दूर करें।

प्रस्तुत श्लोक में समुच्चय, आशी: तथा परिकर अलंकार है। शार्दूल विक्रीड़ित छन्द है। इस प्रकार अक्लेश-केशव-कुंजर-तिलक नामक षष्ठ प्रबन्ध वर्णन हुआ है।

इति द्वितीय: सर्ग:।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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