गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 147

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्

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श्रीजयदेव-भणितमिदमतिशय-मधुरिपु-निधुवन-शीलम्।
सुखमुत्कण्ठित-गोपवधू-कथितं वितनोतु सलीलम्-
सखि हे केशीमथनमुदारम् ... ... ॥8॥[1]


अनुवाद- श्रीजयदेव कवि द्वारा विरचित विरह-विधुरा उत्कण्ठिता नायिका द्वारा वर्णित श्रीकृष्ण के प्रगाढ़तर श्रृंगार विषयक सुरत-वृत्तान्त पढ़ने और सुनने वाले भागवत-जनों का कल्याण वर्द्ध करें ॥8॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- इदम् उत्कण्ठित-गोप-वधू-कथितं (उत्कण्ठिताया: कृष्णप्राप्तौ उत्सुकाया गोपवध्वा राधिकाया: कथितं यत्र तत्र) सलीलम् (सविलासम्) अतिशय-मधुरिपुनिधुवन-शीलं (अतिशयेन मधुरिपो: कृष्णस्य निधुवनं सुरतं शीलयति स्मारयतीति तत्र) श्रीजयदेवभणितम् (श्रीजयदेवोक्ति:) [भक्तानां] सुखं वितनोतु (विस्तारयतु) सखिहे.... ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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