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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्
अनुवाद- उनके साथ रति-विलास करती हुई अतिशय अनंग सुख के अनुभव से अलसा गयी थी, मेरा अंग-अंग अवसन्ना हो गया था, मेरी देहलता रतिश्रम के कारण सामर्थ्यरहित होकर एकान्त में निर्जीव होकर निढाल हो गयी, उस समय जिन श्रीकृष्ण के नयनकमल अनंग-रस से सिक्त होकर ईषत्र खुले हुए थे और जिनके मन में विषमतर मदनविकार निरन्तर विहार कर रहा था, सखि री! उन प्रियतम श्रीकृष्ण से मेरा मिलन करा दो ॥7॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- रतिसुख-समय-रसालसया (रत्या यत्र सुखं तस्य य: समय: काल: तत्र य: रस: चेतसो द्रवीभाव: तेन अलसया निश्चेष्टया) [मया सह] दरमुकुलित-नयन-सरोजम् (दरमुकुलिते ईषन्मुद्रिते नयनसरोजे लोचनपप्रजे यस्य तादृशं) [केशिमथनम्...] [तथा] नि:सह-निपतित तनुलतया [नि:सहं शिथिलम् अपाटवं यथा तथा निपतिता तनुलता यस्या: तादृश्या [मया सह] उदित-मनोजं (उदित: आविर्भूत: मनोज: कामो मयि अभिलाष इति यावत्र यस्य तादृशं) मधुसूदनं [केशिमथनम्....]॥ [अत्र मधुसूदनमिति श्लिष्टम् अनेन भृंगो यथा अन्यकुसुमावलीनां मधु क्रमेणास्वादयन् कमलिन्या उत्कर्षमनुभूय तस्यामेवासक्तो भवति तद्वदयमपीति स्वमससो वैदग्ध्यमेव बोधितम् अतएव उदितमनोजम् इतिविशेषणं सर्वथा संगच्छते ॥7॥
- ↑ अलसा का अर्थ है मन्थरा। रतिसुख समये द्वयोरेककालं रेत:कण क्षरण समये यो रस: तदेकाग्री भावस्तेन अलसा मन्थरा।
दर मुकुलिते अर्थात ईषत्र निमीलिते।
नि:सहा असमर्थ:। उदित मनोजम् अर्थात अभ्युदित कामम्। निपतित तनुलता अर्थात्र विपरीत रति। असमर्था च्युति कालोत्तरावस्था इत्यर्थ।
भरत मुनि ने कहा है-
अंगे स्वेद: श्लथत्वं च केशवस्त्रादि संवृत्ति।
जाते च्युति सुखे नार्या विरामेच्छा च गम्यते
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