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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
श्रीश्रीगुरु-गौरांगौ जयत:
प्रस्तावना(ड)तात्पर्य यह है कि श्रीरायरामानन्द के मुखसे साध्य वस्तु के सम्बन्ध में सुनकर श्रीचैतन्य महाप्रभु ने कहा- "यहीं तक साध्य वस्तु की सीमा और अवधि है। तुम्हारी कृपा से मैं यह सब अच्छी तरह से जान गया। किन्तु यह अत्यन्त गम्भीर साध्य-वस्तु बिना साधन के कोई नहीं पा सकता। हे राय! आप कृपा करके इसको प्राप्त करने का उपाय बतलाइये।" रायजी ने कहा- "आप जो कुछ हमारे हृदय में प्रेरणा करते हैं, वही मैं कहता हूँ। इसमें अच्छा या बुरा मैं क्या कह रहा हूँ, कुछ नहीं जानता? कौन ऐसा धीर व्यक्ति है, जो आपकी माया के नृत्य में स्थिर रह सके। अतएव मेरे मुख से आप ही वक्ता हैं और आप ही श्रोता हैं। यह अत्यन्त रहस्य की बात है। अब मैं उस अत्यन्त गूढ़ साधन की बात बतला रहा हूँ। श्रीराधा-कृष्ण की यह कुञ्जलीला-रासलीला अत्यन्त गम्भीर है। दास्य, सख्य, वात्सल्य आदि भाव वाले भक्तों को भी यह लीला दृष्टि गोचर नहीं होती। इसमें उनका भी प्रवेशाधिकार नहीं है। एकमात्र सखियों का ही इसमें अधिकार है। सखी से इस लीला का विस्तार होता है। सखी के बिना यह लीला पुष्ट नहीं होती। सखियाँ इस लीला को विस्तार करती हैं और वे ही इसका आस्वादन करती हैं। इसलिए सखी की सहायता के बिना, उनका आश्रय लिये बिना इस लीला में प्रवेश करने का और कोई भी उपाय नहीं है। जो सखियों के भावों का अनुसरण करते हैं, उनके आनुगत्य और आश्रय में रहकर भजन करते हैं, केवल वे ही श्रीराधाकृष्ण की कुञ्ज सेवा को प्राप्त हो सकते हैं। इस साध्य को पाने के लिए सखी के पदाश्रय और उनके स्मरण के बिना कोई दूसरा उपाय नहीं है।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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