गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 139

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्

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'मदन मनोरथ भावितया' मेरा अन्त:करण कामजनित कामनाओं से परिपूर्ण हो गया है।

चेष्टा भवति पून्नाार्यो रत्युत्थानातिसक्तयो:।
सम्भोगो विप्रलम्भश्च स श्रृंगारो द्विधामत:॥

अर्थात- जहाँ पर रति की उद्दीपन क्रिया में अत्यासक्त स्त्री तथा पुरुष श्रृंगारिक चेष्टाएँ किया करते हैं, वहाँ पर श्रृंगार दो प्रकार का होता है सम्भोग तथा विप्रलम्भ। मुझ विरहिणी की जैसी अभिलाषा श्रीकृष्ण में है, वैसी ही अभिलाषा वे मुझमें रखते हैं, सखि! मुझे उनसे मिला दो। यहाँ पर श्रृंगार रस की सम्पूर्त्ति हुई है।

श्रीराधा जी कह रही हैं- जब मैं निशीथ रात्रि में निभृत निकुज के अभिसार स्थान में पहुँची, तब उस लतागृह में श्रीश्यामसुन्दर को न देखकर बड़ी विकलता से चतुर्दिग्‌ देखने लगी, उस समय सघन-कुञ्ज में छिपकर निवास करने वाले श्रीड्डष्ण मेरी उत्कण्ठा को देखने लगे। जब मैं चकित नेत्रों से उनका अनुसन्धान करने लगी, तब वे रति के उत्साह से युक्त होकर समस्त दिशाओं को उल्लसितकर हँसते-हँसते मेरे सामने प्रकट हो गये। सखी री, उन्हीं कृष्ण से मुझे मिला दो ॥1॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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