गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 138

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्

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सखि! कृष्ण ने सर्वप्रथम मेरे साथ रमणकर रतिसुख का अनुभव किया था, उनके विरह में वही क्रीड़ा-सुख मुझे बार-बार स्मरण हो रहा है, जिससे मेरा चित्त व्याकुल हो रहा है। सम्प्रति मेरा हृदय 'मादनाख्य' मदन रस में विभावित हो रहा है। मनोरथ के प्रदाता केशीमथन का विरह मुझे असहनीय हो रहा है। सखि! उनसे मेरा रमण कराओ। इस प्रकार कवि ने श्रीराधा का श्रीकृष्ण के प्रति और श्रीकृष्ण का श्रीराधा के प्रति अनुराग प्रदर्शित किया है। यदि मिलन प्रसंग पहले दिखाया होता तो रसाभास दोष हो जाता। 'सविकारम्' पद के द्वारा श्रीराधा कह रही हैं मुझमें काम विकार उत्पन्ना हो गये हैं। कामजनित विकार मन में उत्पन्ना होने पर नारियाँ व्याजान्तर से अर्थात बहाना बनाकर अपने प्रियतम को नाभि, स्तन आदि दिखाती हैं।

रसिक सर्वस्व नामक व्याख्या में कहा गया है कि-

नाभिमूलकुचोदरप्रकटनव्याजेन यद्योषितां
साकांक्षं मुहुरीक्षणं स्खलितता नीवीनिबन्धस्य च।
केशभ्रंसन संयमौ चकमितुख्रमत्रदि सन्दर्शनै:
सौभाग्यादि गुण प्रशस्ति कथनै: तत्सानुरागे कितम्॥

अर्थात- कामविकार उत्पन्ना होने पर स्त्रियाँ अनुरागपूर्ण चेष्टाएँ करती हैं। जैसे किसी माध्यम से अपनी नाभि, स्तन तथा उदर दिखलाती हैं, अपने प्रेमी को सस्पृह दृष्टि से बारम्बार देखती हैं, नीवी-बन्धन स्खलित हो जाता है, केशों का भ्रंशन और संयमन होता है, प्रियतम के मित्रों को सम्यक् प्रकार से देखती हैं, उनके साथ अपने इष्ट के सौभाग्य तथा गुणों की प्रशंसा करती हैं। इस प्रकार की रतिपूर्ण चेष्टा करने वाली मेरे साथ श्रीकृष्ण को मिला दो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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