गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 133

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

5. गीतम्

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श्रीजयदेव-भणितमतिसुन्दर-मोहन-मधुरिपु-रूपं।
हरि-चरण-स्मरणं संप्रति पुण्यवतामनुरूपं
रासे हरिमिह ... ... ॥8॥[1]

अनुवाद- श्रीजयदेव कवि ने सम्प्रति हरिचरण स्मृतिरूप इस काव्य को भगवद्-भक्तिमान पुण्यशाली पुरुषों के लिए प्रस्तुत किया है, जिसमें श्रीकृष्ण के अतिशय सुन्दर मोहन रूप का वर्णन हुआ है। इसका आस्वादन मुख्यरस के आश्रय में रहकर ही किया जाना चाहिये।

बालबोधिनी- पंचम प्रबन्ध का उपसंहार करते हुए श्रीजयदेव कवि ने कहा है कि इस प्रबन्ध का प्रणयन प्रेमाभक्तियुक्त पुण्यवान पुरुषों के द्वारा श्रीकृष्ण के श्रीचरणकमलों का स्मरण करने के लिए किया गया है। 'चरण' का अर्थ रासलीला आदि से है, जो भक्तों के लिए आज भी अनुकूल है। यह अतीव सुन्दर लीला है और वही श्रीकृष्ण के श्रीचरणकमलों के स्मरण का साधन है, जिसे श्रीराधा कभी भुला नहीं पाती।

इस अष्टपदी प्रबन्ध में लय छन्द है। जिसका लक्षण है-'मुनिर्यगणैर्लयमामनन्ति'

इस पाँचवे प्रबन्ध का नाम है 'मधुरिपुरत्नकण्ठिका'।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अति-सुन्दर-मोहन-मधु-रिपु-रूपं (अतिशयेन सुन्दरं मोहनं मनोहरं मधुरिपो: श्रीकृष्णस्य रूपं यत्र तादृशं) श्रीजयदेव-भणितं (श्रीजयदेवोक्तं) सम्प्रति (अधुना) पुण्यवतां (सुकृतिशालिनां भगवर्क्तानां साधूनां) हरि-चरण-स्मरणं प्रति अनुरूपं (योग्यं तादृशभावेन आस्वादनीयमिति भाव:) [भवतु इति शेष:] [रासे विहितविलासमित्यादि] ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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