गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 132

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

5. गीतम्

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विशद-कदम्बतले मिलितं कलि-कलुषभयं शमयन्तं
मामपि किमपि तरंग दन दृशा मनसा रमयन्तं-
रासे हरिमिह ... ... ॥7॥[1]

अनुवाद- विशाल एवं सुविकसित कदम्ब वृक्ष के नीचे समागत होकर मेरी अपेक्षा में प्रतीक्षा करने वाले विविध प्रकार के आश्वासनयुक्त चाटुवचनों के द्वारा विच्छेद भय को सम्यक् रूप से अपनयन (दूरीभूत) करने वाले प्रबलतर अनंग रस के द्वारा चंचल नेत्रों से तथा नितान्त स्पृहायुक्त मानस में मेरे साथ मन-ही-मन रमण करने वाले श्रीकृष्ण का स्मरण कर मेरा हृदय विकल हो रहा है।

पद्यानुवाद
विशद कदम्बतले उपवेष्टित,
जन मनसे कलि भय अपसारित
निज अपांग से मम मन पूरित,
सुन्दर मोहन कवि जय वर्णित
हरि मूरतका ध्यान,
हो आता अनजान

बालबोधिनी- श्रीराधा कहती हैं हे सखि! वे अतिशय उत्कण्ठा के साथ इस विशाल कदम्ब के नीचे संकेत स्थान पर मेरी प्रतीक्षा करते रहते हैं। प्रणय कलह होने पर विच्छेद के भय से चाटु वाक्यों द्वारा मनाते रहते हैं। इस तरह वे मुझे अपनी सरस दृष्टि तथा सानुराग मन से आनन्दित करते रहते हैं।

'मामपि' मुझे भी आनन्दित करते रहते हैं, अर्थात प्रियतम श्रीकृष्ण की चेष्टाएँ इतनी मनोज्ञ हैं कि उनको देखकर मैं भी हर्ष-प्रकर्ष का अनुभव करती हूँ ॥7॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- विशद-कदम्बतले (पुष्पित-कदम्बतरुतले) मिलितं (मया सह स तं) कलि-कलुषभयं शमयन्तं (कलि: कलह: कलुषं मालिन्य: प्रेमकलहोद्भूतं चित्तमालिन्यं तदपनयन्तं चाटुभिरितिशेष:; यद्वा कलिजनित-पाप-तापभयं निवारयन्तं) किमपि (अनिर्वचनीयं यथा तथा) तरंगदनंग-दृशा (तरंग इव आचरन् अनंगो यत्र तया दृशा दृष्ट्या) मामपि (मामेव) रमयन्तं (मया सह रतिं ध्यायन्तमित्यर्थ:) [रासे विहित-विलासमित्यादि] ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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