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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
5. गीतम्
विशद-कदम्बतले मिलितं कलि-कलुषभयं शमयन्तं अनुवाद- विशाल एवं सुविकसित कदम्ब वृक्ष के नीचे समागत होकर मेरी अपेक्षा में प्रतीक्षा करने वाले विविध प्रकार के आश्वासनयुक्त चाटुवचनों के द्वारा विच्छेद भय को सम्यक् रूप से अपनयन (दूरीभूत) करने वाले प्रबलतर अनंग रस के द्वारा चंचल नेत्रों से तथा नितान्त स्पृहायुक्त मानस में मेरे साथ मन-ही-मन रमण करने वाले श्रीकृष्ण का स्मरण कर मेरा हृदय विकल हो रहा है। पद्यानुवाद बालबोधिनी- श्रीराधा कहती हैं हे सखि! वे अतिशय उत्कण्ठा के साथ इस विशाल कदम्ब के नीचे संकेत स्थान पर मेरी प्रतीक्षा करते रहते हैं। प्रणय कलह होने पर विच्छेद के भय से चाटु वाक्यों द्वारा मनाते रहते हैं। इस तरह वे मुझे अपनी सरस दृष्टि तथा सानुराग मन से आनन्दित करते रहते हैं। 'मामपि' मुझे भी आनन्दित करते रहते हैं, अर्थात प्रियतम श्रीकृष्ण की चेष्टाएँ इतनी मनोज्ञ हैं कि उनको देखकर मैं भी हर्ष-प्रकर्ष का अनुभव करती हूँ ॥7॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- विशद-कदम्बतले (पुष्पित-कदम्बतरुतले) मिलितं (मया सह स तं) कलि-कलुषभयं शमयन्तं (कलि: कलह: कलुषं मालिन्य: प्रेमकलहोद्भूतं चित्तमालिन्यं तदपनयन्तं चाटुभिरितिशेष:; यद्वा कलिजनित-पाप-तापभयं निवारयन्तं) किमपि (अनिर्वचनीयं यथा तथा) तरंगदनंग-दृशा (तरंग इव आचरन् अनंगो यत्र तया दृशा दृष्ट्या) मामपि (मामेव) रमयन्तं (मया सह रतिं ध्यायन्तमित्यर्थ:) [रासे विहित-विलासमित्यादि] ॥7॥
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