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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
5. गीतम्
विपुल-पुलक-भुज-पल्लव-वलयित-वल्लव-युवति-सहंस्त्र। अनुवाद- अतिशय रोमाञ्च से परिप्लुत होकर अपने सुकोमल भुज-पल्लव के द्वारा हजारों-हजारों गोप-युवतियों को समालिंगित करने वाले एवं कर, चरण और वक्षस्थल में ग्रथित मणिमय आभूषणों की किरणों से दिशाओं को आलोकित करने वाले श्रीकृष्ण का मुझे स्मरण हो रहा है। पद्यानुवाद बालबोधिनी- इस समय श्यामसुन्दर के उन कोमल-कोमल पल्लवों के समान हस्तों का मुझे स्मरण हो रहा है, जो प्रभूत रोमाञ्च से युक्त हैं और जिनसे वे सह गोपियों को परिवेष्टित कर उनका समालिंगन करते हैं। उनके कर, चरण तथा हृदयस्थल के आभूषणों के सौन्दर्य की किरणों से सम्पूर्ण अन्धकार विदूरित हो गया है ॥4॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- सखि, विपुल-पुलक-भुजपल्लव-वलयित-वल्लव-युवति- सहस्रं (विपुला: अगाधा: पुलका रोमाञ्चा ययोस्ताभ्यां भुजपल्लवाभ्यां पल्लव-पेलव-भुजाभ्यां वलयितं परिवेष्टितम् आलिंगितमित्यर्थ: वल्लव-युवतीनां गोप-तरुणीनां सहस्रं येन तम् एकदानेकालिंगनात् नैकनिष्ठप्रेमाणमित्यर्थ:); [तथा] करचरणोरसि (हस्तपदवक्षसि) मणिगण-भूषण-किरण-विभिन्ना-तमिस्त्रं (मणिगणभूषणानां मणिमयालंकाराणां किरणेन विभिन्नां निराकृतं तमिस्त्रम् अन्धकारो येन तादृशम्) [मम मन: रासे विहितविलासमित्यादि] ॥4॥
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