गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 125

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

5. गीतम्

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गुर्ज्जरीराग यतितालाभ्यां गीयते

सञ्चरदधर-सुधा-मधुर-ध्वनि-मुखरित-मोहन-वंशं
बलित-दृगञ्चल-चञ्चल-मौलि-कपोल-विलोल-वतंसम्र।
रासे हरिमिह विहित-विलासं
स्मरति मनो मम कृत-परिहासम् ॥1॥ध्रुवम्॥[1]

अनुवाद- सखि, कैसी आश्चर्य की बात है कि इस शारदीय रासोत्सव में श्रीकृष्ण मुझे छोड़कर अन्य कामिनियों के साथ कौतुक आमोद में विलास कर रहे हैं। फिर भी मेरा मन उनका पुन: पुन: स्मरण कर रहा है। वे सञ्चरणशील अपने मुखामृत को अपने करकमल में स्थित वेणु में भरकर फुत्कार के साथ सुमधुर मुखर स्वरों में बजा रहे हैं, अपांग-भंगी के द्वारा अपने मणिमय शिरोभूषण को चञ्चलता प्रदान कर रहे हैं, उनके कानों के आभूषण कपोल देश में दोलायमान हो रहे हैं, उनके इस श्याम रूप का, उनके हास-परिहास का मुझे बारम्बार स्मरण हो रहा है ॥1॥

पद्यानुवाद
हे सखि!
कम्पित अधर मधु-ध्वनित वेणु-स्वर
चलित दृगञ्चल चञ्चल शिर, भर
गति कपोल द्वय लोल वलय वर
रास विलास हास कृत मनहर
हरि मूरतका ध्यान,
हो आता अनजान

बालबोधिनी- सखि ने कहा प्रिय राधिके! जब श्रीकृष्ण ने तुम्हारा प्रत्याख्यान किया है, तब तुम क्यों उनके प्रेम में इतनी अधीर हो रही हो?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सखि, सञ्चरदधर-सुधा मधुर-ध्वनि-मुखरित-मोहन-वंशं (सञ्चरन्ती उद्गच्छन्ता अधरसुधा यत्र तेन मधुरेण ध्वनिना मुखरित: शब्दित: मोहन: मनोमोहकर: वंश: वेणु येन तादृशं) वलित-दृगञ्चल-चञ्चल-मौलि-कपोल-विलोल-वतंसं (वलितेन इतस्तत: प्रचलता दृगञ्चलेन दृशो: नेत्रयो: अञ्चलं चक्षु:प्रान्तभाग: तेन कटाक्षेणेत्यर्थ: यो सौ चञ्चलमौलि: कम्पितशिरोभूषणं तेन कपोलयो: गण्डयो: विलोलौ चञ्चलौ वतंसौ मणिकुण्डले यस्य तादृशं) इह रासे (शारदीय-रासलीलायां) विहितविलासं (विहित: कृत: विलास: हावभावो येन तादृशं) [तथा] कृतपरिहासं (कृत: परिहासो येन तादृशं) हरिं मम मन: स्मरति ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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