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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर
अथ तृतीय सन्दर्भ
3. गीतम्
दर-विदलित-मल्ली-वल्लि-चंचत्-पराग- अनुवाद- हे सखि! देखो, अर्द्ध प्रस्फुटित मल्लिकालता के मकरन्द के श्वेतचूर्ण से वनस्थली श्वेत पटवास द्वारा समाच्छादित हो गयी है। केतकी कुसुमों के सुगन्ध से मलयपवन आमोदित हो रहा है, यह पवन कामदेव के बाण के समान उसका प्राणसखा वन विरहीजनों के हृदय को दग्ध कर रहा है ॥1॥ बालबोधिनी- सखी श्रीराधा जी के सम्मुख वसन्त काल में प्रवहमाना मलय वायु की उद्दीपना का वर्णन करती हुई कह रही है कि पवन विरहीजनों के हृदय को तापित कर रहा है। यदि यह पूछा जाय कि किस अपराध के कारण वायु चित्त को दग्ध कर रही है तो इसके उत्तर में कहते हैं, यह पवन कामदेव का प्राणतुल्य है, अत: अपने सखा के आदेश का पालन करते हुए विरहीजनों के हृदय को तपाने लगता है। इस वसन्तकाल में मल्लिका-लता ईषत् रूप से विकसित हो गयी है, उसके उड्डीयमान परागपुंज ही पटवास बन गये हैं और केतकी प्रसूनों के इस परिमल-चूर्ण से वायु सुगन्ध से परिपूर्ण हो गयी है, कामदेव के समान यह पवन भी विरहीजनों को सन्तप्त कर रहा है। अतएव यह समीरण कामदेव के प्राण के समान है। प्रस्तुत श्लोक मालिनी छन्द का है, समासोक्ति तथा वर्णानुप्रास अलकारों की संसृष्टि है ॥1॥ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [अथ वसन्तवायु वर्णयति कवि:] इह (वसन्ते) केतकीगन्धवन्धु: (केतकीनां गन्धस्य वन्धु: नित्यसहचर: अत्यागसहनइत्यर्थ:) [तथा] प्रसरदसमवाण-प्राणवत् (प्रसरन् प्रतिदिशं संचरन् तरुणचेतसि प्रवृंद्धि गच्छन् य: असमवाण: पंचवाण: मदन इत्यर्थ: मदनोऽत्र नृपत्वेन निरूपित: तस्य प्राणवत्र प्राणसदृशं अतिप्रिय इत्यर्थ:; अस्य निरतिशय-मदनोद्दीपकत्वादिति भाव:) गन्धवाह: (दक्षिणानिल:) [सख्युराज्ञा पालनीया इत्यालोच्य] दर-विदलितमल्ली-वल्लि- चंचत्रपराग-प्रकटित-पट-वासै: (दर-विदलितानाम् ईषद्र- विकसितानां मल्लीनां मल्लिकानां या वल्लय: लता: तासां चञ्चन्त: प्रसरन्त: ये परागा: पुष्परेणव: ते एव प्रकटिता: स्फुटीकृता: पटवासा: सुगन्धचूर्णविशेषा: तै:) काननानि वासयन् (सुरभीकुर्वन्) चेत: [वियोगिनामिति शेष:] दहति हि (नितरां सन्तापयत्येव) ॥1॥
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