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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
श्रीश्रीगुरु-गौरांगौ जयत:
प्रस्तावना(झ)इसी में भक्तों को अत्यन्त उन्नात भगवत प्रेम और भगवान का चूड़ान्त भक्तवात्सल्य प्रकटित हुआ है। यही अखिल श्रुतियों का सार स्वरूप है। श्रुतियों ने कहा है कि वे परमात्मा जिसको चाहते हैं वही उनको प्राप्त होते हैं- यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥[1] भगवान श्रीकृष्ण आनन्दघनमूर्त्ति हैं। जीव भी सब समय केवल आनन्द का ही अनुसन्धान कर रहा है, उसे प्राप्त नहीं कर पा रहा है। किन्तु जिस दिन जीवों का ऐसा सौभाग्य उदित होगा, उसी दिन अर्थात जिस समय भक्तों के अन्तर्निहित भावों को देखकर भगवान स्वयं अपने को ज्ञात करा देंगे, उसी दिन अपने सौभाग्य के बल से स्वयं आनन्द भी उनका अनुसन्धान करेगा। साधक भक्त अपने हृदय में कृष्णाकर्षणी प्रेमभक्ति संचयकर अपने घर में बैठा रहेगा और प्रेमलोलुप आनन्दमय श्रीकृष्ण उसके निकट जाने के लिए परम व्याकुल हो उठेंगे। अपराधी की भाँति अनुनय विनय करेंगे देहि पदपल्लवमुदारं। यही निखिल श्रुतियों का सार स्वरूप है। श्रुतियाँ कहती हैं ब्रह्म जितना निकट है उतना दूर भी है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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