गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 10

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

श्रीश्रीगुरु-गौरांगौ जयत:

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प्रस्तावना

(झ)

इसी में भक्तों को अत्यन्त उन्नात भगवत प्रेम और भगवान का चूड़ान्त भक्तवात्सल्य प्रकटित हुआ है। यही अखिल श्रुतियों का सार स्वरूप है। श्रुतियों ने कहा है कि वे परमात्मा जिसको चाहते हैं वही उनको प्राप्त होते हैं-

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥[1]

भगवान श्रीकृष्ण आनन्दघनमूर्त्ति हैं। जीव भी सब समय केवल आनन्द का ही अनुसन्धान कर रहा है, उसे प्राप्त नहीं कर पा रहा है। किन्तु जिस दिन जीवों का ऐसा सौभाग्य उदित होगा, उसी दिन अर्थात जिस समय भक्तों के अन्तर्निहित भावों को देखकर भगवान स्वयं अपने को ज्ञात करा देंगे, उसी दिन अपने सौभाग्य के बल से स्वयं आनन्द भी उनका अनुसन्धान करेगा। साधक भक्त अपने हृदय में कृष्णाकर्षणी प्रेमभक्ति संचयकर अपने घर में बैठा रहेगा और प्रेमलोलुप आनन्दमय श्रीकृष्ण उसके निकट जाने के लिए परम व्याकुल हो उठेंगे। अपराधी की भाँति अनुनय विनय करेंगे देहि पदपल्लवमुदारं। यही निखिल श्रुतियों का सार स्वरूप है। श्रुतियाँ कहती हैं ब्रह्म जितना निकट है उतना दूर भी है।

श्रीगीतगोविन्द के काव्य-तत्त्व की आलोचना


श्रीजयदेव कवि ने इस मधुर-काव्य में गान्धर्व-विद्या का कौशल, ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीश्यामसुन्दर के चिन्तन-स्मरण का समस्त रहस्य, सम्भोग और विप्रलम्भ दोनों प्रकार के श्रृंगार रस का विस्तृत विवेचन तथा काव्य-प्रणय की प्राचीन पद्धति, सभी का मणिकाञचन न्याय से सन्निवेश किया है। उन्होंने स्वयं कहा है 'सानन्दा: परिशोधयन्तु सुधिय: श्रीगीतगोविन्दत:'[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (कठ 1/2/23)
  2. 12/24/11

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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