गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 5
इन्द्र ने कहा- देवि ! जिस आदि और मध्य से रहित परमात्मा में यह सम्पूर्ण जगत विद्यमान है, जिनसे इसकी उत्पत्ति हुई है तथा जिन सर्वभूतमय परमेश्वर से ही इसका संहार होने वाला है, उन सृष्टि, पालन और संहार के कारणभूत परमेश्वर से पराजित हुए पुरुष को लज्जा कैसे हो सकती है ? जो समस्त भुवनों की उत्पत्ति के स्थान हैं, जिनकी अत्यन्त सूक्ष्म मूर्ति जिनका निगुण-निराकर शरीर कुछ और ही है, अर्थात अर्निवचनीय होने के कारण जिसका शब्दों द्वारा प्रतिपादन नहीं हो सकता, जो समस्त ज्ञातव्य तत्वों के जानकार हैं, ऐसे सर्वज्ञ महात्मा ही जिनके उस स्वरूप को जान पाते हैं, दूसरे लोग उसे कदापि नहीं जानते हैं, उन्हीं अजन्मा, नित्य, सनातन परमेश्वर को, जो स्वेच्छा से ही जगत के उपकार के लिए मानव-शरीर धारण करके विराज रहे हैं, कौन जीत सकता है ? सत्यभामा से ऐसा कहकर इन्द्र चुप हो गये, तब भगवान श्रीकृष्ण हंसकर गम्भीर वाणी में बोले- ‘शक्र ! आप देवताओं के राजा हैं और हमलोग भूतलवासी मनुष्य। मैंने यहाँ आकर जो अपराध किया है, उसे क्षमा कर दें। देवराज ! यह रहा आपका पारिजात, इसे इसके योग्य स्थान पर ले जाइये। मैंने तो सत्यभामा के कहने पर इसको ले लिया था, वह वज्र यह रहा; इसे ग्रहण कीजिए। शुनासीर ! यह आपका ही अस्त्र है और आपके वैरियों पर प्रयुक्त होकर यह उनका निवारण कर सकता है। इन्द्र ने कहा- श्रीकृष्ण ! अपने विषय में ‘मैं मनुष्य हूँ’- ऐसा कहकर आप क्यों मुझे मोहित में डाल रहे हैं ? हम जानते हैं, आप जगदीश्वर हैं। हम आपके सूक्ष्म स्वरूप को नहीं जानते। नाथ ! आप जो हों, सो हों, जगत के उद्धार कार्य में आप लगे हुए हैं। गरुड़ध्वज ! आप जगत के कण्टकों का शोधन करते हैं। श्रीकृष्ण ! इस पारिजात को आप द्वारकापुरी में ले जाइये। जब आप मनुष्य लोक को त्याग देंगे, तब यह भूतल पर नहीं रहेगा। गोविन्द ! उस समय स्वयं ही स्वर्गलोक में आ जायगा। श्रीगर्ग जी कहते हैं- राजन ! यह विनययुक्त वचन सुनकर वज्रधारी को उनका वज्र लौटाकर देवेश्वरों से अपनी स्तुति सुनते हुए द्वारकानाथ श्रीकृष्ण द्वारका में लौट आये। वहाँ के आकाश में स्थित होकर उन्होंने शंख बजाया। नरेश्वर ! उस शंखध्वनि से उन्होंने द्वारकावासियों के हृदय में आनन्द उत्पन्न किया और गरूड़ से उतरकर सत्यभामा के साथ महल में आये। उन्होंने सत्यभामा के गृहोद्यान में पारिजात को आरोपित कर दिया। उस पर स्वर्गीय पक्षी निवास करते थे और वहीं के भ्रमर उसके सुगन्धित मकरन्द का पान करते थे। माधव ने माधवमास में एक ही मुहुर्त के भीतर अलग-अलग घरों में उन समस्त राजकन्याओं के साथ धर्मत: विवाह किया, जिन्हें वे प्राग्ज्योतिषपुर से द्वारका में लाये थे। उनकी रानियों की संख्या सोलह हजार एक सौ आठ थी। परिपूर्णत श्रीहरि ने उतने ही रूप बनाकर उनके साथ विवाह किया। उन अमोघगति परमेश्वर ने जितनी अपनी भार्याएँ थीं, उनमें से प्रत्येक के गर्भ से दस-दस पुत्र उत्पन्न किये। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में अश्वमेध खण्ड में ‘पारिजात का आनयन’ नामक पांचवां अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |