गंगासागर, अयोध्या, चित्रकूट, प्रयाग आदि की महिमा का वर्णन

महाभारत वनपर्व के 'तीर्थयात्रापर्व' के अंतर्गत अध्याय 85 में गंगासागर, अयोध्या, चित्रकूट, प्रयाग आदि विभिन्न तीर्थों की महिमा के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है[1]-

पुलस्त्यजी कहते हैं- भीष्म! तदनन्तर प्रातः संध्या के समय उत्तम संवेद्यतीर्थ में जाकर स्नान करने से मनुष्य विद्यालाभ करता है; इसमें संशय नहीं हैं। राजन्! पूर्वकाल में श्रीराम प्रभाव से जो तीर्थ प्रकट हुआ, उसका नाम लौहित्यतीर्थ है। उसमें जाकर स्नान करने से मनुष्य को बहुत-सी सुवर्णराशि प्राप्त होती है। करतोया में जाकर स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। वह ब्रह्माजी द्वारा की हुई व्यवस्था है। राजेन्द्र! वहाँ गंगासागर संगम में स्नान करने से दस अश्वमेध यज्ञों के फल की प्राप्ति होती है, ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं।। राजन! जो मानव गंगासागर संगम में गंगा के दूसरे पार पहुँचकर स्नान करता है और तीन रात वहाँ निवास करता है, वह सब पापों से छूट जाता है। तदनन्तर सब पापों से छुड़ाने वाली वैतरणी की यात्रा करे। वहाँ विरजतीर्थ में जाकर स्नान करने से मनुष्य चन्द्रमा के समान प्रकाशित होता है। उसका पुण्यमय कुछ संसार सागर से तर जाता है। वह अपने सब पापों का नाश कर देता है और सहस्र गो दान का फल प्राप्त करके अपने कुल को पवित्र कर देता है। शोण और ज्योतिथ्या के संगम में स्नान करके जितेन्द्रिय एवं पवित्र पुरुष यदि देवताओं ओर पितरों का तर्पण करे तो वह अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता है। कुरुनन्दन! शोण और नर्मदा के उत्पत्तिस्थान वंशनुल्मतीर्थ में स्नान करके तीर्थयात्री अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। नरेश्वर! कोसला (अयोध्या) में ऋतभतीर्थ में जाकर स्नानपूर्वक तीन रात उपवास करने वाला मानव वाजपेय यज्ञ का फल पाता है इतना ही नहीं, वह सहस्र गो दान का फल पाता और अपने कुल का भी उद्धार कर देता है। कोसला नगरी (अयोध्या) में जाकर कालतीर्थ में स्नान करे ऐसा करने से ग्यारह वृषभ-दान का फल मिलता है, इसमें संशय नहीं है। पुष्पवती में स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य सहस्र गो दान का फल पाता और अपने कुल को पवित्र कर देता है।

भरतकुलभूषण! तदनन्तर तदरिकातीर्थ में स्नान करके मनुष्य दीर्घायु पाता और स्वर्गलोक में जाता है। तत्पश्चात् चम्पा में जाकर भागीरथी में तर्पण करे और दण्डनामक तीर्थ में जाकर सहस्र गो दान का फल प्राप्त करे। तदनन्तर पुण्यशोभिता पुण्यमयी लपेटिका में जाकर स्नान करे। ऐसा करने से तीर्थयात्री वाजपेययज्ञ का फल पाता और सम्पूर्ण देवताओं द्वारा पूजित होता है। इसके बाद परशुराम सेवित महेन्द्र पर्वत पर जाकर वहाँ रामतीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।

कुरूश्रेष्ठ कुरुनन्दन! वहीं मतंग का केदा है, उसमें स्नान करने से मनुष्य को सहस्र गो दान का फल मिलता है। श्री पर्वत पर जाकर वहाँ की नदी के तट पर स्नान करे। वहाँ भगवान शंकर की पूजा करके मनुष्य को अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। श्रीपर्वत पर देवी पार्वती के साथ महातेजस्वी बड़ी प्रसन्नता के साथ निवास करते हैं। देवताओं के साथ ब्रह्माजी भी वहाँ रहते हैं। वहाँ देवकुण्ड में स्नान करके पवित्र हो जितात्मा पुरुष अश्वमेध का फल पाता और परम सिद्धि लाभ करता है। पाड्यदेश में देवपूजित ऋषभ पर्वत पर जाकर तीर्थयात्री वाजपेययज्ञ का फल पाता और स्वर्गलोक में आनंदित होता है।

राजन! तदनन्तर अप्सराओं से आवृत कावेरी नदी की यात्रा करे। वहाँ स्नान करने से मनुष्य सहस्र गो दान का फल पाता है। राजेन्द्र! तत्पश्चात् समुद्र के तट पर विद्यमान कन्यातीर्थ (कन्याकुमारी) मैं जाकर स्नान करे। उस तीर्थ में स्नान करते ही मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। महाराज! इसके बाद समुद्र के मध्य में विद्यमान त्रिभुवन विख्यात अखिल लोकवंदित गोकर्णतीर्थ में जाकर स्नान करे। जहाँ ब्रह्मा आदि देवता, तपोधन महर्षि, भूत, यक्ष, पिशाच, किन्नर, महानाग, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, मनुष्य, सर्प, नदी, समुद्र और पर्वत-ये सभी उमावल्लभ भगवान शंकर की उपासना करते हैं। वहाँ भगवान शिव की पूजा करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और गणपति पद प्राप्त कर लेता है। वहाँ बारह रात निवास करने से मनुष्य का अन्तःकरण पवित्र हो जाता है। वही गायत्री का त्रिलोकपूजित स्थान है।

वहाँ तीन रात निवास करने वाला पुरुष सहस्र गो दान का फल प्राप्त करता है। नरेश्वर! ब्राह्मणों की पहचान के लिये वहाँ प्रत्यक्ष उदाहरण है। राजन! जो वर्णसंकर योनि में उत्पन्न हुआ है, वह यदि गायन्तीमंत्र का पाठ करता है, तो उसके मुख से वह गाथा या गीत की तरह स्वर और वर्णों के नियम से रहित होकर निकलती है अर्थात वह गायत्री का उच्चारण ठीक नहीं कर सकता। जो सर्वथा ब्राह्मण नहीं है, ऐसा मनुष्य यदि वहाँ गायत्रीमन्त्र का पाठ करे तो वहाँ वह मन्त्र लुप्त हो जाता हैं अर्थात उसे भूल जाता है। राजन! वहाँ ब्रह्मर्षि संवर्त की दुर्लभ बावली है। उसमें स्नान करके मनुष्य सुन्दर रूप का भागी और सौभाग्यशाली होता है। तदनन्तर वेणा नदी के तट पर जा कर तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य (मृत्यु के पश्चात) मोर और हंसो से जुता हुआ विमान को प्राप्त करता है। तत्पश्चात् सदा सिद्ध पुरुषों से सेवित गोदावरी के तट पर जाकर स्नान करने से तीर्थयात्री गोमेध यज्ञ का फल पाता और वासुकि के लोक में जाता है। वेणासंगम में स्नान करके मनुष्य अश्वमेध के फल का भागी होता है। वरदासंगमतीर्थ में स्नान करने से सहस्र गो दान का फल मिलता है। ब्रह्मस्थान में जाकर तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य सहस्र गो दान का फल पाता और स्वर्गलोक में जाता है।। कुरुपल्वनतीर्थ में जाकर स्नान करके ब्रह्मचर्य पालन पूर्वक एकाग्रचित्त हो तीन रात निवास करने वाला पुरुष अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। तदनन्तर कृष्ण वेणा के जल से उत्पन्न हुए रमणीय देवकुण्ड में, जिसे जातिस्मर ह्नद कहते हैं, स्नान करे।

वहाँ जाने मात्र से यात्री अग्निष्टोमयज्ञ का फल पा लेता है। तत्पश्चात् सर्वदेवह्रद में स्नान करने से सहस्र गो दान का फल मिलता है। तदनन्तर परम पुण्यमयी वापी और सरिताओं में श्रेष्ठ पयोष्णी में जाकर स्नान करे और देवताओं तथा पितरों के पूजन में तत्पर रहे, ऐसा करने से तीर्थसेवी को सहस्र गोदान का फल मिलता है। राजन! भरतनन्दन! जो दण्डकारण्य में जाकर स्नान करता है, उसे स्नान करने मात्र से सहस्र गो दान का फल प्राप्त होता है। शरभंग मुनि तथा महात्मा शुक के आश्रम पर जाने से मनुष्य कभी दुर्गति में नहीं पड़ता और अपने कुल को पवित्र कर देता है। तदनन्तर परशुराम सेवित शूर्पारकतीर्थ की यात्रा करे। वहाँ रामतीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को प्रचुर सुवर्णराशि की प्राप्ति होती है।[2]

सप्तगोदावरतीर्थ में स्नान करके नियम-पालन पूर्वक नियमित भोजन करने वाला पुरुष महान पुण्य लाभ करता है और देवलोक में जाता है। तत्पश्चात् नियम पालन के साथ साथ नियमित आहार ग्रहण करने वाला मानव देव पथ में जाकर देवसत्र का जो पुण्य है, उसे पा लेता है। तुंगकाण्य में जाकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इन्द्रियों को अपने वश में रखे। प्राचीन काल में वहाँ सारस्वत ऋषि ने अन्य ऋषियों को वेदों का अध्ययन कराया था। एक समय उन ऋषियों को सारा वेद भूल गया। इस प्रकार वेदों के नष्ट होने (भूल जाने) पर अंगिरा मुनि का पुत्र ऋषियों के उत्तरीय वस्त्रों (चादरों) में छिप कर सुख पूर्वक बैठ गया[3]।नियम के अनुसार ओम कार का ठीक-ठीक उच्चारण होने पर, जिसने पूर्वकाल में जिस वेद का अध्ययन एवं अभ्यास किया था, उसे वह सब स्मरण हो आया। उस समय वहाँ बहुत से ऋषि, देवता, वरुण, अग्नि, प्रजापति, भगवान नारायण और महादेवजी भी उपस्थित थे। महातेजस्वी भगवान ब्रह्मा ने देवताओं के साथ जाकर परम कांतिमान भृगु को यज्ञ कराने के काम पर नियुक्त किया। तदनन्तर भगवान भृगु ने वहाँ सब ऋषियों के यहाँ शास्त्रीय विधि के अनुसार पुनः भलीभाँति अग्निस्थापन कराया। उस समय आज्यभाग के द्वारा विधिपूर्वक अग्नि को तृप्त करके सब देवता और ऋषि क्रमशः अपने-अपने स्थान को चले गये। नृपश्रेष्ठ! उस उस तुंगकारण्य में प्रवेश करते ही स्त्री या पुरुष सबके पाप नष्ट हो जाते हैं। धीर पुरुष को चाहये कि वह नियम पालन पूर्वक नियमित भोजन करते हुए एक मास तक वहाँ रहे।

राजन! ऐसा करने वाला तीर्थयात्री ब्रह्मलोक में जाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। तत्पश्चात् मेधाविकतीर्थ में जाकर देवताओं और पितरों का तर्पण करे; ऐसा करने वाला पुरुष अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता और स्मृति एवं बुद्धि को प्राप्त कर लेता है। इस तीर्थ में कालंजर नामक लोकविख्यात पर्वत है, वहाँ देवह्रद नामक तीर्थ में स्नान करने से सहस्र गो दान का फल मिलता है। राजन! जो कालंजर पर्वत पर स्नान करके वहाँ साधन करता है, वह मनुष्य स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है; इसमें संशय नहीं है। राजन्! तदनन्तर पर्वतश्रेष्ठ चित्रकूट में सब पापों का नाश करने वाली मन्दाकिनी के तट पर पहुँचकर उसमें स्नान करे और देवताओं तथा पितरों की पूजा में लग जाय। इससे वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और परम गति को प्राप्त होता है।।

धर्मज्ञनरेश! तत्पश्चात् तीर्थयात्री परम उत्तम भतृस्थान की यात्रा करे, जहाँ महासेन कार्तिकेय जी निवास करते हैं। नृपश्रेष्ठ! वहाँ जाने मात्र से सिद्धि प्राप्त होती है। कोटि-तीर्थ में स्नान करके मनुष्य सहस्र गो दान का फल पाता है। उसकी परिक्रमा करके तीर्थयात्री मानव ज्येष्ठस्थान को जाय। वहाँ महादेव जी का दर्शन-पूजन करने से वह चन्द्रमा के समान प्रकाशित होता है। भरतकुलभूषण महाराज युधिष्ठिर! वहाँ एक कूप है, जिसमें चारों समुद्र निवास करते हैं। राजेन्द्र! उसमें स्नान करके देवताओं और पितरों के पूजन तत्पर रहने वाला जितात्मा पुरुष पवित्र हो परमगति प्राप्त होता है। राजेन्द्र! वहाँ से महान शंगवेरपुर की यात्रा करे। महाराज! पूर्वकाल में दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजी ने वहीं गंगा पार की थी। महाबाहो! उस तीर्थ ने स्थान करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। ब्रह्मचर्य पालन पूर्वक एकाग्र हो गंगाजी में स्नान करके मनुष्य पापरहित होता तथा वाजपेय यज्ञ का फल पाता है।[4]

तदनन्तर तीर्थयात्री परम बुद्धिमान महादेवजी के मुञजवट नामक तीर्थ को जाय। भरतनन्दन! उस तीर्थ में महादेवजी के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके परिक्रमा करने से मनुष्य गणपति पद प्राप्त कर लेता है। उक्त तीर्थ में जाकर गंगा में स्नान करने से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। राजेन्द्र! तत्पश्चात् महर्षियों द्वारा प्रशंसित प्रयागतीर्थ में जाय। जहाँ ब्रह्मा आदि देवता, दिशा, दिक्पाल, लोकपाल, साध्य, लोकसम्मानित पितर, सनत्कुमार आदि महर्षि, अंगिरा आदि निर्मल ब्रह्मर्षि, नाग सुर्पण, सिद्ध, सूर्य, नदी, समुद्र, गन्धर्व, अप्सरा तथा ब्रह्माजी भगवान विष्णु निवास करते हैं। वहाँ तीन अग्निकुण्ड हैं, जिसके बीच से सब तीर्थों से सम्पन्न गंगा वेग पूर्वक बहती है। त्रिभुवनविख्यात सूर्य पुत्री लोकपावनी यमुनादेवी वहाँ गंगाजी के साथ मिली हैं। गंगा और यमुना का मध्यभाग पृथ्वी का जघन माना गया है। ऋषियों ने प्रयाग को जधनस्थानीय उपस्थ बताया है। प्रतिष्ठानपुर (झूसी) सहित प्रयाग, कम्बल और अश्वतर नाग तथा भोगवतीतीर्थ यह ब्रह्माजी की वेदी है। युधिष्ठिर! उस तीर्थ में वेद और यज्ञ मूर्तिमान होकर रहते हैं और प्रजापति की उपासना करते हैं। तपोधन ऋषि, देवता और चक्रधर नृपतिगण वहाँ यज्ञो द्वारा भगवान का यजन करते हैं। भरत-नन्दन! इसीलिये तीनों लोकों में प्रयाग को सब तीर्थों की अपेक्षा श्रेष्ठ एवं पुण्यतम बताते हैं। उस तीर्थ में जाने से अथवा उसका नाम लेने मात्र से भी मनुष्य मृत्यु काल के भय और पाप से मुक्त हो जाता है। वहाँ के विश्व विख्यात संगम में जो स्नान करता है, वह राजसूय और अश्वमेध यज्ञों का पुण्य फल प्राप्त कर लेता है।

भरतनन्दन! यह देवताओं की संस्कार की हुई यज्ञभूमि है। यहाँ दिया हुआ थोड़ा सा भी दान महान होता है। तात! तुम्हें किसी वैदिक वचन से या लौकिक वचन से भी प्रयाग में मरने का विचार नहीं त्यागना चाहिये। कुरुनन्दन! साठ करोड़ दस हजार तीर्थों का निवास केवल इस प्रयाग में ही बताया गया है। चारों विद्याओं के ज्ञान से जो पुण्य होता है तथा सत्य बोलने वाले व्यक्तियों को जिस पुण्य होता है, तथा सत्य बोलने वाले व्यक्तियों को जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वह सब गंगा-यमुना के संगम में स्नान करने मात्र प्राप्त हो जाता है।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत वन पर्व अध्याय 85 श्लोक 1-21
  2. महाभारत वन पर्व अध्याय 85 श्लोक 22-43
  3. और विधिपूर्वक ओमकार का उच्चारण करने लगा
  4. महाभारत वन पर्व अध्याय 85 श्लोक 44-66
  5. महाभारत वन पर्व अध्याय 85 श्लोक 67-93

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अर्जुन की उग्र तपस्या | अर्जुन का शिव से युद्ध | अर्जुन द्वारा शिव स्तुति | अर्जुन को शिव का वरदान | अर्जुन के पास दिक्पालों का आगमन | इन्द्र द्वारा अर्जुन को स्वर्ग आगमन का आदेश
इन्द्रलोकाभिगमन पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक प्रस्थान | अर्जुन का इन्द्रसभा में स्वागत | अर्जुन को अस्त्र और संगीत की शिक्षा | चित्रसेन और उर्वशी का वार्तालाप | उर्वशी का अर्जुन को शाप | इन्द्र-अर्जुन से लोमश मुनि की भेंट | धृतराष्ट्र की पुत्र चिन्ता तथा संताप | वन में पांडवों का आहार | कृष्ण प्रतिज्ञा का संजय द्वारा वर्णन
नलोपाख्यान पर्व
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जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण | भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना | पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना | आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश | पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास | भीमसेन द्वारा मणिमान का वध | कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन | कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट | कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना | धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन | धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन | पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन | इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना | अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन | अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा | अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन | अर्जुन का पाताल में प्रवेश | अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ | अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध | अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन | अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध | अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध | इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन | युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा | नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

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