क्रोधित बलराम को कृष्ण का समझाना

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 60वें अध्याय में संजय ने क्रोध में भरे हुए बलराम जी को श्रीकृष्ण द्वारा समझाकर रोकने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

बलराम का क्रोधित होना

धृतराष्ट्र ने पूछा- सूत! उस समय राजा दुर्योधन को अधर्मपूर्वक मारा गया देख महाबली मधुकुलशिरोमणि बलदेव जी ने क्या कहा था? संजय! गदायुद्ध के विशेषज्ञ तथा उसकी कला में कुशल रोहिणीनन्दन बलराम जी ने वहाँ जो कुछ किया हो, वह मुझे बताओ। संजय ने कहा- राजन! भीमसेन द्वारा आपके पुत्र के मस्तक पर पैर का प्रहार हुआ देख योद्धाओं में श्रेष्ठ बलवान बलराम को बड़ा क्रोध हुआ। फिर वहाँ राजाओं की मण्डली में अपनी दोनों बांहें ऊपर उठाकर हलधर बलराम ने भयंकर आर्तनाद करते हुए कहा- भीमसेन! तुम्हें धिक्कार है! धिक्कार है!! अहो! इस धर्मयुद्ध में नाभि से नीचे जो प्रहार किया गया है और जिसे भीमसेन ने स्वयं किया है, यह गदायुद्ध में कभी नहीं देखा गया। नाभि से नीचे आघात नहीं करना चाहिये। यह गदायुद्ध के विषय में शास्त्र का सिद्धान्त है। परंतु यह शास्त्र ज्ञान से शून्य मूर्ख भीमसेन यहाँ स्वेच्छाचार कर रहा है। ये सब बातें कहते हुए बलदेव जी का रोष बहुत बढ़ गया। फिर राजा दुर्योधन की ओर दृष्टिपात करके उनकी आंखें क्रोध से लाल हो गयी। महाराज! फिर बलदेव जी ने कहा- 'श्रीकृष्ण! राजा दुर्योधन मेरे समान बलवान था। गदायुद्ध में उसकी समानता करने वाला कोई नहीं था। यहाँ अन्याय करके केवल दुर्योधन नहीं गिराया गया है, (मेरा भी अपमान किया गया है) शरणागत की दुर्बलता के कारण शरण देने वाले का तिरस्कार किया जा रहा है। ऐसा कहकर महाबली बलराम अपना हल उठाकर भीमसेन की ओर दौडे़।[1]

कृष्ण का बलराम को समझाना

उस समय अपनी भुजाएं ऊपर उठाये हुए महात्मा बलराम जी का रूप अनेक धातुओं के कारण विचित्र शोभा पाने वाले महान श्वेतपर्वत के समान जान पड़ता था। महाराज! हलधर को आक्रमण करते देख अर्जुन सहित अस्त्रवेत्ता भाइयों के साथ खड़े हुए बलवान भीमसेन तनिक भी व्यथित नहीं हुए। उस समय विनयशील, बलवान श्रीकृष्ण ने आक्रमण करते हुए बलराम जी को अपनी मोटी एवं गोल-गोल भुजाओं द्वारा बड़े प्रयत्न से पकड़ा। राजेन्द्र! वे श्याम-गौर यदुकुलतिलक दोनों भाई परस्पर मिले हुए कैलास और कज्जल पर्वतों के समान शोभा पा रहे थे। राजन! संध्याकाल के आकाश में जैसे चन्द्रमा और सूर्य उदित हुए हों, वैसे ही उस रणक्षेत्र में वे दोनों भाई सुशोभित हो रहे थे। उस समय श्रीकृष्ण ने रोष से भरे हुए बलराम जी को शान्त करते हुए से कहा- 'भैया! अपनी उन्नति छः प्रकार की होती है -अपनी बुद्धि, मित्र की वृद्धि और मित्र के मित्र की वृद्धि तथा शत्रु पक्ष में इसके विपरीत स्थिति अर्थात शत्रु की हानि, शत्रु के मित्र की हानि तथा शत्रु के मित्र के मित्र की हानि। अपनी और अपने मित्र की यदि इसके विपरीत परिस्थिति हो तो मन-ही-मन ग्लानि का अनुभव करना चाहिये और मित्रों की उस हानि के निवारक के लिये शीघ्र प्रयत्नशील होना चाहिये। शुद्ध पुरुषार्थ का आश्रय लेने वाले पाण्डव हमारे सहज मित्र हैं। बुआ के पुत्र होने के कारण सर्वथा अपने हैं। शत्रुओं ने इनके साथ बहुत छल-कपट किया था।[1]

मैं समझता हूँ कि इस जगत में अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना क्षत्रिय के लिये धर्म ही है। पहले सभा में भीमसेन ने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं महायुद्ध में अपनी गदा से दुर्योधन की दोनों जांघें तोड़ डालूंगा। शत्रुओं को संताप देने वाले बलराम जी! महर्षि मैत्रेय ने भी दुर्योधन को पहले से ही यह शाप दे रखा था कि भीमसेन अपनी गदा से तेरी दोनों जांघें तोड़ डालेंगें। अत लम्बहनता बलभद्र जी! मैं इसमें भीमसेन का कोई दोष नहीं देखता; इसलिये आप भी क्रोध न कीजिये। हमारा पाण्डवों के साथ यौन-संबंध तो है ही। परस्पर सुख देने वाले सौहार्द से भी हम लोग बंधे हुए हैं। पुरुष प्रवर! इन पाण्डवों की वृद्धि से हमारी भी वृद्धि है, अतः आप क्रोध न करें।' श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर धर्मज्ञ हलधर ने इस प्रकार कहा- 'श्रीकृष्ण! श्रेष्ठ पुरुषों ने धर्म का अच्छी तरह आचरण किया है; किंतु वह अर्थ और काम- इन दो वस्तुओं से संकुचित हो जाता है। अत्यन्त लोभी का अर्थ और अधिक आसक्ति रखने वाले का काम- ये दोनों ही धर्म को हानि पहुँचाते हैं! जो मनुष्य काम से धर्म और अर्थ को, अर्थ से धर्म और काम को तथा धर्म से अर्थ और काम को हानि न पहुँचाकर धर्म, अर्थ और काम तीनों का यथोचित रूप से सेवन करता है, वह अत्यन्त सुख का भागी होता है। गोविन्द! भीमसेन ने (अर्थ के लोभ से) धर्म को हानि पहुँचाकर इन सबको विकृत कर डाला है। तुम मुझसे जिस प्रकार इस कार्य को धर्मसंगत बता रहे हो वह सब तुम्हारी मनमानी कल्पना है।'

श्रीकृष्ण ने कहा- 'भैया! आप संसार में क्रोधरहित, धर्मात्मा और निरन्तर धर्म पर अनुग्रह रखने वाले सत्पुरुष के रूप में विख्यात हैं; अतः शान्त हो जाइये, क्रोध न कीजिये। समझ लीजिये कि कलियुग आ गया। पाण्डुपुत्र भीमसेन की प्रतिज्ञा पर भी ध्यान दीजिये। आज पाण्डुकुमार भी वैर और प्रतिज्ञा के ऋण से मुक्त हो जायं। पुरुषसिंह भीम रणभूमि में कपटी दुर्योधन को मारकर चले गये। उन्होंने जो अपने शत्रु का वध किया है, इसमें कोई अधर्म नहीं है। इसी दुर्योधन ने कर्ण को आज्ञा दी थी, जिससे उसने कुरु और वृष्णि दोनों कुलों के सुयश की वृद्धि करने वाले, युद्धपरायण, वीर अभिमन्यु के धनुष को समरांगण में पीछे से आकर काट दिया था। इस प्रकार धनुष कट जाने और रथ से हीन हो जाने पर भी जो पुरुषार्थ में ही तत्पर था, रणभूमि में पीठ न दिखाने वाले उस सुभद्राकुमार अभिमन्यु को इसने निहत्था करके मार डाला था। यह दुरात्मा, दुर्बुद्धि एवं पापी दुर्योधन जन्म से ही लोभी तथा कुरुकुल का कलंक रहा है, जो भीमसेन के हाथ से मारा गया है। भीमसेन की प्रतिज्ञा तेरह वर्षों से चल रही थी और सर्वत्र प्रसिद्ध हो चुकी थी। युद्ध करते समय दुर्योधन ने उसे याद क्यों नहीं रखा? यह वेग से ऊपर उछलकर भीमसेन को मार डालना चाहता था। उस अवस्था में भीम ने अपनी गदा से इसकी दोनों जांघें तोड़ डाली थीं। उस समय न तो यह किसी स्थान में था और न मण्डल में ही।'

संजय कहते हैं- प्रजानाथ! भगवान श्रीकृष्ण से यह छलरूप धर्म का विवेचन सुनकर बलदेव जी के मन को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने भरी सभा में कहा[2]- धर्मात्मा राजा दुर्योधन को अधर्मपूर्वक मारकर पाण्डुपुत्र भीमसेन इस संसार में कपटपर्ण युद्ध करने वाले योद्धा के रूप में विख्यात होंगे। धृतराष्ट्रपुत्र धर्मात्मा राजा दुर्योधन सरलता से युद्ध कर रहा था, उस अवस्था में मारा गया है; अतः वह सनातन सद्गति को प्राप्त होगा। युद्ध की दीक्षा ले संग्रामभूमि में प्रविष्ट हो रणयज्ञ का विस्‍तार करके शत्रुरूपी प्रज्वलित अग्नि में अपने शरीर की आहुति दे दुर्योधन ने सुयशरूपी अवभृथ-स्नान का शुभ अवसर प्राप्त किया है। यह कहकर प्रतापी रोहिणीनन्दन बलराम जी, जो श्वेत बादलों के अग्रभाग की भाँति गौर-क्रान्ति से सुशोभित हो रहे थे, रथ पर आरूढ़ हो द्वारका की ओर चल दिये।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 60 श्लोक 1-15
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 60 श्लोक 16-26
  3. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 60 श्लोक 27-60

सम्बंधित लेख

महाभारत शल्य पर्व में उल्लेखित कथाएँ


शल्य और दुर्योधन वध के समाचार से धृतराष्ट्र का मूर्च्छित होना | धृतराष्ट्र को विदुर द्वारा आश्वासन देना | दुर्योधन के वध पर धृतराष्ट्र का विलाप करना | धृतराष्ट्र का संजय से युद्ध का वृत्तान्त पूछना | कर्ण के मारे जाने पर पांडवों के भय से कौरव सेना का पलायन | भीम द्वारा पच्चीस हज़ार पैदलों का वध | अर्जुन द्वारा कौरवों की रथसेना पर आक्रमण | दुर्योधन का अपने सैनिकों को समझाकर पुन: युद्ध में लगाना | कृपाचार्य का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | दुर्योधन का कृपाचार्य को उत्तर देना | दुर्योधन का संधि स्वीकर न करके युद्ध का ही निश्चय करना | अश्वत्थामा का शल्य को सेनापति बनाने का प्रस्ताव | दुर्योधन के अनुरोध पर शल्य का सेनापति पद स्वीकार करना | शल्य के वीरोचित उद्गार | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को शल्यवध हेतु उत्साहित करना | उभयपक्ष की सेनाओं का रणभूमि में उपस्थित होना | कौरव-पांडवों की बची हुई सेनाओं की संख्या का वर्णन | कौरव-पांडव उभयपक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों के भय से कौरव सेना का पलायन | नकुल द्वारा कर्ण के तीन पुत्रों का वध | कौरव-पांडव उभयपक्ष की सेनाओं का भयानक युद्ध | शल्य का पराक्रम | कौरव-पांडव योद्धाओं के द्वन्द्वयुद्ध | भीम के द्वारा शल्य की पराजय | भीम और शल्य का भयानक गदा युद्ध | दुर्योधन द्वारा चेकितान का वध | दुर्योधन की प्रेरणा से कौरव सैनिकों का पांडव सेना से युद्ध | युधिष्ठिर और माद्रीपुत्रों के साथ शल्य का युद्ध | मद्रराज शल्य का अद्भुत पराक्रम | अर्जुन और अश्वत्थामा का युद्ध | अश्वत्थामा के द्वारा सुरथ का वध | दुर्योधन और धृष्टद्युम्न का युद्ध | शल्य के साथ नकुल और सात्यकि आदि का घोर युद्ध | पांडव सैनिकों और कौरव सैनिकों का द्वन्द्वयुद्ध | भीमसेन द्वारा दुर्योधन की पराजय | युधिष्ठिर द्वारा शल्य की पराजय | भीम द्वारा शल्य के घोड़े और सारथि का वध | युधिष्ठिर के द्वारा शल्य का वध | युधिष्ठिर के द्वारा शल्य के भाई का वध | सात्यकि और युधिष्ठिर द्वारा कृतवर्मा की पराजय | मद्रराज के अनुचरों का वध और कौरव सेना का पलायन | पांडव सैनिकों द्वारा पांडवों की प्रशंसा और धृतराष्ट्र की निन्दा | भीम द्वारा इक्कीस हज़ार पैदलों का संहार | दुर्योधन का अपनी सेना को उत्साहित करना | धृष्टद्युम्न द्वारा शाल्व के हाथी का वध | सात्यकि द्वारा शाल्व का वध | सात्यकि द्वारा क्षेमधूर्ति का वध | कृतवर्मा का सात्यकि से युद्ध तथा उसकी पराजय | दुर्योधन का पराक्रम | कौरव-पांडव उभयपक्ष की सेनाओं का घोर संग्राम | कौरव पक्ष के सात सौ रथियों का वध | उभय पक्ष की सेनाओं का मर्यादा शून्य घोर संग्राम | शकुनि का कूट युद्ध और उसकी पराजय | अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण से दुर्योधन के दुराग्रह की निन्दा | अर्जुन द्वारा कौरव रथियों की सेना का संहार | अर्जुन और भीम द्वारा कौरवों की रथसेना एवं गजसेना का संहार | अश्वत्थामा आदि के द्वारा दुर्योधन की खोज | सात्यकि द्वारा संजय का पकड़ा जाना | भीम के द्वारा धृतराष्ट्र के ग्यारह पुत्रों का वध | भीम के द्वारा कौरवों की चतुरंगिणी सेना का संहार | श्रीकृष्ण और अर्जुन की बातचीत | अर्जुन के द्वारा सत्यकर्मा और सत्येषु का वध | अर्जुन के द्वारा सुशर्मा का उसके पुत्रों सहित वध | भीम के द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र सुदर्शन का अन्त | सहदेव के द्वारा उलूक का वध | सहदेव के द्वारा शकुनि का वध
ह्रदप्रवेश पर्व
बची हुई समस्त कौरव सेना का वध | संजय का क़ैद से छूटना | दुर्योधन का सरोवर में प्रवेश | युयुत्सु का राजमहिलाओं के साथ हस्तिनापुर में जाना
गदा पर्व
अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा की सरोवर में दुर्योधन से बातचीत | युधिष्ठिर का सेना सहित सरोवर पर जाना | कृपाचार्य आदि का सरोवर से दूर हट जाना | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण की बातचीत | सरोवर में छिपे दुर्योधन के साथ युधिष्ठिर का संवाद | युधिष्ठिर के कहने से दुर्योधन का सरोवर से बाहर आना | दुर्योधन का किसी एक पांडव से गदायुद्ध हेतु तैयार होना | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को फटकारना | श्रीकृष्ण द्वारा भीमसेन की प्रशंसा | भीम और दुर्योधन में वाग्युद्ध | बलराम का आगमन और सम्मान | भीम और दुर्योधन के युद्ध का आरम्भ | बलदेव की तीर्थयात्रा | प्रभासक्षेत्र के प्रभाव तथा चंद्रमा के शापमोचन की कथा | उदपान तीर्थ की उत्पत्ति तथा त्रित मुनि के कूप में गिरने की कथा | त्रित मुनि का यज्ञ | त्रित मुनि का अपने भाइयों का शाप देना | वैशम्पायन द्वारा विभिन्न तीर्थों का वर्णन | नैमिषारण्य तीर्थ का वर्णन | बलराम का सप्त सारस्वत तीर्थ में प्रवेश | सप्तसारस्वत तीर्थ की उत्पत्ति | मंकणक मुनि का चरित्र | औशनस एवं कपालमोचन तीर्थ की माहात्म्य कथा | रुषंगु के आश्रम पृथूदक तीथ की महिमा | आर्ष्टिषेण एवं विश्वामित्र की तपस्या तथा वरप्राप्ति | अवाकीर्ण तीर्थ की महिमा और दाल्भ्य की कथा | यायात तीर्थ की महिमा और ययाति के यज्ञ का वर्णन | वसिष्ठापवाह तीर्थ की उत्पत्ति | ऋषियों के प्रयत्न से सरस्वती नदी के शाप की निवृत्ति | सरस्वती नदी के जल की शुद्धि | अरुणासंगम में स्नान से राक्षसों और इन्द्र का संकटमोचन | कुमार कार्तिकेय का प्राकट्य | कुमार कार्तिकेय के अभिषेक की तैयारी | स्कन्द का अभिषेक | स्कन्द के महापार्षदों के नाम, रूप आदि का वर्णन | स्कन्द की मातृकाओं का परिचय | स्कन्द देव की रणयात्रा | स्कन्द द्वारा तारकासुर, महिषासुर आदि दैत्यों का सेनासहित संहार | वरुण का अभिषेक | अग्नितीर्थ, ब्रह्मयोनि और कुबेरतीर्थ की उत्पत्ति का प्रसंग | श्रुतावती और अरुन्धती के तप की कथा | इन्द्रतीर्थ, रामतीर्थ, यमुनातीर्थ और आदित्यतीर्थ की महिमा | असित देवल तथा जैगीषव्य मुनि का चरित्र | दधीच ऋषि तथा सारस्वत मुनि के चरित्र का वर्णन | वृद्ध कन्या का चरित्र | वृद्ध कन्या का शृंगवान से विवाह तथा स्वर्गगमन | ऋषियों द्वारा कुरुक्षेत्र की सीमा और महिमा का वर्णन | प्लक्षप्रस्रवण आदि तीर्थों तथा सरस्वती की महिमा | बलराम का नारद से कौरवों के विनाश का समाचार सुनना | भीम-दुर्योधन का युद्ध देखने के लिए बलराम का जाना | बलराम की सलाह से सबका कुरुक्षेत्र के समन्तपंचक तीर्थ में जाना | समन्तपंचक तीर्थ में भीम और दुर्योधन में गदायुद्ध की तैयारी | दुर्योधन के लिए अपशकुन | भीमसेन का उत्साह | भीम और दुर्योधन का वाग्युद्ध | भीम और दुर्योधन का गदा युद्ध | कृष्ण और अर्जुन की बातचीत | अर्जुन के संकेत से भीम द्वारा दुर्योधन की जाँघें तोड़ना | दुर्योधन के धराशायी होने पर भीषण उत्पात प्रकट होना | भीमसेन द्वारा दुर्योधन का तिरस्कार | युधिष्ठिर का भीम को अन्याय करने से रोकना | युधिष्ठिर का दुर्योधन को सान्त्वना देते हुए खेद प्रकट करना | क्रोधित बलराम को कृष्ण का समझाना | युधिष्ठिर के साथ कृष्ण और भीम की बातचीत | पांडव सैनिकों द्वारा भीम की स्तुति | कृष्ण के आक्षेप पर दुर्योधन का उत्तर | कृष्ण द्वारा पांडवों का समाधान | पांडवों का कौरव शिबिर में पहुँचना | अर्जुन के रथ का दग्ध होना | पांडवों का कृष्ण को हस्तिनापुर भेजना | कृष्ण का हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र और गांधारी को आश्वासन देना | कृष्ण का पांडवों के पास लौटना | दुर्योधन का संजय के सम्मुख विलाप | दुर्योधन का वाहकों द्वारा अपने साथियों को संदेश भेजना | दुर्योधन को देखकर अश्वत्थामा का विषाद एवं प्रतिज्ञा करना | अश्वत्थामा का सेनापति पद पर अभिषेक

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः