मुक्त परे जे फेरि तिन्हें पुनि करम बतायो
वेड उपनिषद सर जे मोहन गुन गहि लेत
तिनके आतम सुद्ध करि,फिरि फिरि संथा देत
जोग चटसार मैं
कोऊ कहे रे मधुप तुम्हें लज्जा नहि आवे
सखा तुम्हारे स्याम कूबरी नाथ कहावे
यह नीची पदवी हुती गोपीनाथ कहाय
अब जदुकुल पावन भयौ, दासी जूठन खाय
मरत कह बोल को
धन्य धन्य जे लोग भजत हरि को जो ऐसे
अरु जो पारस प्रेम बिना पावत कोउ कैसे
मेरे या लघु ग्यान को, उर मद कह्यो उपाध
अब जान्यौ ब्रज प्रेम को, लहत न आधौ आध
वृथा स्रम करि थक