विरह-पदावली -सूरदास
(238) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) सखी! कोई तो इन मोरों को मना करे; इनके बोलने पर (श्यामसुन्दर के) वियोग के कारण एक क्षण (भी स्थिर) नहीं रहा जाता, (साथ ही) उनका शब्द सुनकर (वियोग-) दुःख करोड़ों गुना बढ़ जाता है। चंचल बिजली चारों दिशाओं में चमक रही है और आकाश में मेघों की गर्जना हो रही है। वर्षा होते समय बूँदें बाण के समान लगती हैं। (हाय! अब) इन सबों का प्राबल्य रहते हम कैसे जीवित रह सकती हैं। (जिस भाँति) नेत्र भरकर (भली प्रकार) चन्द्रमा की किरणें पीते हुए भी चकोरों को तृप्ति नहीं होती, उसी प्रकार हम तो तभी जीवित रह सकती हैं, जब श्रीनन्दकिशोर मिलेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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