विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) मेरे दोनों नेत्र दीन होकर व्याकुल हो रहे हैं। वे (मोहन का) दर्शन किये बिना कैसे रहें; (क्योंकि) वे (उस) चन्द्रमा में चकोर के समान तल्लीन हैं। ऐसे श्रीहीन हो गये हैं, जैसे झुलसाये हुए खंजन पक्षी अथवा जल से रहित कमल हों। वे श्यामसुन्दररूपी समुद्र से वियुक्त हो गये हैं, इससे (इस प्रकार) तड़फड़ाते हैं, जैसे (जल से पृथक हुई) मछली। जैसे वसन्त-ऋतु न रहने पर भौंरे की वाणी प्रतिक्षण शिथिल पड़ती जाती है (वही दशा इनकी है)। (अतः) स्वामी गोपाल के बिना (ही इन्हें रखना था तो) विधाता ने इन (नेत्रों) को बनाया ही क्यों ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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