कृष्णानन्ददास

कृष्णानन्ददास
कृष्णानन्ददास
पूरा नाम कृष्णानन्ददास
जन्म भूमि जालंधर
मृत्यु संवत 1998
मृत्यु स्थान वृन्दावन, मथुरा
कर्म भूमि भारत
प्रसिद्धि श्रीकृष्ण के भक्त
विशेष योगदान आपने ब्रज और उसके बाहर लगभग 200 कीर्तन संस्थाएँ स्थापित कीं, जिनका संचालन आज भी उनके ‘चार सम्प्रदाय आश्रम,’ वृन्दावन द्वारा हो रहा है।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी बीसवीं सदी के प्रथम चरण में जब आर्यसमाज, देवसमाज, ब्रह्मसमाज आदि विविध मार्ग जोर पकड़ रहे थे, तब आपने एक-एक दिन में पांच-पांच ग्रामों में सभा करके धर्मरक्षार्थ प्रबल आन्दोलन किया।

कृष्णानन्ददास (जन्म- जालंधर, पंजाब; मृत्यु- संवत 1998, वृन्दावन, उत्तर प्रदेश) भगवान श्रीकृष्ण के रसिक भक्त थे। ये षड्दर्शन के विद्वान थे। इन्होंने माध्वगौड़ीय आचार्यवंश में वैष्णवी दीक्षा ग्रहण की थी। कृष्णानन्ददास जी ने ब्रज और उसके बाहर लगभग 200 कीर्तन संस्थाएँ स्थापित की थीं, जिनका संचालन आज भी उनके ‘चार सम्प्रदाय आश्रम,’ वृन्दावन द्वारा हो रहा है।

परिचय

कृष्णानन्ददास का जन्म जालन्धर ज़िले का था। आप षड्दर्शन के विद्वान थे; काशी में अध्ययन हुआ, वहीं संन्यास की दीक्षा ग्रहण की। आपका त्याग-वैराग्य एक विलक्षण ढंग का ही था, जो आज बहुत कम देखने में आता है। कृष्णानन्ददास श्रीकृष्ण की भक्ति के रसिक थे। विद्याभ्यास के अनन्तर आप गंगातट पर भ्रमण करते रहे, किंतु हृदय को शान्ति न मिलती थी। तत्कालीन महात्मा श्रीअच्युत मुनि जी ने आपको ब्रजमण्डल का रास्ता बताया।

ब्रज आगमन

ब्रज में आकर कृष्णानन्ददास ने चार-चार, छः-छः दिन के सूखे मधुकरी के टुकड़े खा-खाकर भागवत-अध्ययन और प्राचीन लीला-ग्रन्थों का स्वाध्याय किया; इसके पश्चात् आपने नवद्वीप के माध्वगौड़ीय आचार्यवंश में वैष्णवी दीक्षा ग्रहण की और 'सखा भाव' का आश्रय ग्रहण किया। प्रायः आप ग्वारिया बाबा का सत्संग करते थे। ब्रज में रहते आपकी विचित्र दशा थी। एक साफी, एक लंगोटी, करपात्र, भिक्षा सप्ताह में एक दिन, एक वृक्ष के नीचे एक दिन, मौनव्रत, स्त्री-अदर्शन आदि बड़े कड़े नियम थे। आप नामव्रती पक्के थे; जिस गांव में अखण्ड कीर्तन न हो, जिस भक्त के घर में भगवत-पूजा न हो, वहाँ आप जल ग्रहण नहीं करते थे। लोगों को आप एक ही उपदेश देते- "भाई ! गीध, अजामिल, गणिका से तुम गये-बीते नहीं हो; मनुष्य की देह मिली है। हरिनाम जपो और चलते-फिरते प्रभु-नाम का कीर्तन करते रहो- नहिं कलि कर्म न धर्म बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू।।" बस, यही आपका मुख्य उपदेश था।

धर्मप्रचार

एक दिन कृष्णानन्ददास जी के साथ दैवीय घटना घटी। आपके सारे शरीर को एक तेजःपुंज ने जकड़ लिया और कहा- "क्या तुम छोकरी की तरह अपने ही काम में लगे रहते हो? विद्या में इतना श्रम किया है, इससे जन-कल्याण क्यों नहीं करते?" बस, उसी समय से आपने प्रचार-कार्य शुरू किया। आचार्यो को आदर्श बनाया और धर्मरक्षार्थ अपने प्राणों का लोभ भी परित्याग कर दिया। उत्तर प्रदेश के उत्तरी ज़िलों में ग्राम-ग्राम में आपने धर्मप्रचार किया। बीसवीं सदी के प्रथम चरण में जब आर्यसमाज, देवसमाज, ब्रह्मसमाज आदि विविध मार्ग जोर पकड़ रहे थे, तब आपने एक-एक दिन में पांच-पांच ग्रामों में सभा करके धर्मरक्षार्थ प्रबल आन्दोलन किया।

कीर्तन-संस्थाओं की स्थापना

कृष्णानन्ददास ने ब्रज और उसके बाहर लगभग 200 कीर्तन-संस्थाएं स्थापित कीं, जिनका संचालन आज भी उनके ‘चार सम्प्रदाय आश्रम,’ वृन्दावन द्वारा हो रहा है। आपने कई धार्मिक एवं भावात्मक ग्रन्थ भी लिखे हैं; यह कहने में कोई सन्देह नहीं कि सहस्रों भोली ग्रामीण जनता ने आपके उपदेशों से मार्ग प्राप्त किया था।[1]

मृत्यु

60 वर्ष की आयु में संवत 1998 के फाल्गुन मास में कृष्णानन्ददास ने उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा ज़िले में वृन्दावन की रज प्राप्त की।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लेखक-श्रीरामदासजी शास्त्री

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